विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों में दास्य का हेतु-2हसितावलोकम् – हसितावलोक का सायुज्य है भगवान के साथ। संसार में बड़े-बड़े सुख हैं पर मुक्ति से बढ़कर और कोई सुख नहीं है, भला; लेकिन प्रेम में इससे उलटा है। वेदान्ती लोग कहते हैं कि मुक्ति सुख है, और प्रेमी कहता है कि अपने प्रियतम के साथ बन्धनसुख है। कोई प्रेम भी चाहे और मुक्ति भी चाहे तो बोलेगा कि हम प्रेम तो तुमसे करते हैं पर तुम्हारे परतंत्र रहना नहीं चाहते; तो वह प्रेमी है कि बेवकूफ है? प्रेमी को तो बद्ध होकर रहना पड़ता है, बँधकर रहना पड़ता है, प्रेमी मुक्त होकर कैसे रहेगा? प्रेम तो संबंध होता है, प्रेम में तो बंधन होता है, प्रेम में मुक्ति कैसी? प्रेम में मुक्ति यदि है भी तो सबसे मुक्ति है, परंतु अपने प्रियतम से मुक्ति नहीं है। हसितावलोकम्- इसमें भी एक बन्धन का वर्णन है; हसित है ओठों में और अवलोकन है नेत्रों में; आँख में है चितवन और होंठों में है मुस्कान और दोनों आपस में बँध गयी हैं। यह उलझन है दोनों की। दोनों भगवान् की सेवा करती हैं। चितवन प्रेम को फैलाती है और हँसी मोह में डालती है, स्नेह में; बन्धन में डालती है। हासो जनोन्मादकरी च माया। भगवान् की मुस्कान लोगों को पागल बना देती है। यह देखो- ज्ञान और अज्ञान दोनों का मेल है, भगवान् के मुखारविन्द पर। यह जो अधरसुधा है, हसित है, मुस्कान है, यह मुस्कान तो लोगों को पागल बनाने के लिए है और चितवन जो है वह रास्ता बताने के लिए है। हँसकर पागल बनाया और आँख के इशारे से अपने पास बुला लिया- सम्मोहित करने के लिए है हँसी और आकृष्ट करने के लिए चितवन। भगवान् की जो मुस्कान है वह बेहोश करने की जड़ी है, भला! बेहोश करने का जादू कहाँ है? मुस्कान में। और खींचने की रस्सी कहाँ है? चितवन में। नेत्र की रश्मियों से अपनी ओर खींच लेते हैं और मुसकराकर पागल बना देते हैं- हासितावलोकम्। बोले- भाई! यह सब तो ठीक है। ये चारों प्रकार की मुक्ति तो मुक्त हो गयीं- सारूप्य हुआ तो शिर पर आ गये न सामीप्य हुआ तो कान में आ गये, सालोक्य हुआ तो अधरसुधा और सायुज्य हुआ तो हसितावलोक। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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