विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों में दास्य का हेतु-1
प्रेयसी और प्रियतम दोनों के हृदय मंदिर में विराजमान जो प्रेम है वह दीपक है, जो हृदयमन्दिर को प्रकाशित करता है और अचल होकर रहता है- यदि ये मुख के दरवाजे से बाहर गया कि मैं प्रेमी हूँ- मैं प्रेमी हूँ, यह घोषणा की गयी, तो दीपक बुझ जायेगा या कम से कम लड़खड़ा तो जायेगा ही। यह प्रेमदीपक जब तक हृदयमन्दिर में छिपा रहता है, तभी तक सुरक्षित है। अब महाराज बड़ा बढ़िया सम्वाद हुआ; डेढ़-दो घंटे की लीला हुई। लीला हो जाने के बाद उन्होंने कहा कि लीला तो बहुत ही खराब थी क्योंकि इसमें श्रीकृष्ण ग्वालिनी बनकर झूठ बोलते हैं। वृन्दावन के लोगों ने कहा-भाई, तुम प्रेम को नहीं जानते हो, तुम झूठ-सच की बात तो समझते हो, लेकिन प्रेम की बात नहीं समझते हो। प्रेम में तो जो गूढ़ तत्त्व है वह बात की जाती है; प्रेम में गुदगुदाने वाली बात की जाती है। धर्म-अधर्म की जहाँ समस्या होती है वहाँ झूठ-सच होता है। और जहाँ प्रेम होता है, वहाँ तो कभी गर्मी से, कभी ठंडकर से प्रेम को स्वादु बनाया जाता है। कहीं गर्मी से, कहीं सर्दी से, कहीं झूठ से, कही सच से, कहीं सोके, कहीं जाग के, कहीं जानकर, कहीं अनजान बनके प्रेम को सुस्वादु बनाया जाता है। ज्ञान का आदर करने के लिए प्रेम नहीं है। प्रेम की जो लीला है, वह बहुत विलक्षण है। कृष्ण ने कहा- अरी गोपियो! न तो कभी मैंने तुम लोगों की कोई सेवा की; न तो कभी कोई दान-दक्षिणा दी; न तो कभी तुम लोगों को खिलाया-पिलाया, कोई पार्टी नहीं दी, और न तुम्हारी तारीफ की कि तुम्हारी नाक ऐसी ऊँची है, तुम्हारी आँख ऐसी बड़ी है और तुम्हारे बाल ऐसे सुन्दर हैं- तारीफ कर-करकर तुमको कभी रिझाया नहीं; और डंडा लेकर कभी भेड़ की तरह जंगल में लाया नहीं। यह तुम क्यों चाहती हो कि हमको दासी बनाओ? अरे, जाकर अपने घर की महारानी बनो, हमारी दासी बनकर क्या होगा? क्यों आयी हो दासी बनने के लिए, अपने गर में तुम महारानी की तरह रहो। हमारे पास ऐसा क्या रखा है जिससे तुम घर-द्वार छोड़कर हमारे पास आयी हो? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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