विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीश्रीकृष्ण में रति ही बुद्धिमानी है‘प्रसीद’ तुम खुश होकर हमारी आँखों के रास्ते से हमारे दिल में अपना जो प्रसन्नरूप है उसको प्रकट करो। ‘मा स्म छिन्द्या आशां भृतां त्वयि चिरादरविन्दनेत्र’ हे कमलनयन। माने इतनी कोमलता है तुम्हारी आँखों में, इतना रसीलापन है तुम्हारी आँखों में, और तुमने हमारे हृदय में एक आशा की लता लगयी है। तुमने हमारे हृदय में आशा का खेत बनाया, उसमें बीज बोया, उसको अंकुरित किया, सींचा, पल्लवित किया, पुष्पित किया, फलित किया। ये आशा की लता अब लहला उठी, फूल गय गये, फल लग गये। तो विधि तो यह है, कायदा तो यह है कि अपने हाथ के लगाये हुए विष की बेल को भी नहीं उखाड़ना चाहिए। फिर यह प्रेमलता जो हमारे दिल में तुम्हारी ही लगायी हुई उसको क्यों उखाड़ना चाहते हो। अब तो इसके रसास्वादन का समय आया है। तुम इसको काटने क्यों जा रहे हो? यह तुम्हारी रसीली आँखों के लिए, ये तुम्हारे कोमल हृदय के लिए, ये तुम्हारे प्रेम के लिए, ये तुम्हारे अनुरूप नहीं है। अब रही बात जाने की। तो पाँव हमारे जल गये, रास्ता घर का भूल गया, अब लौटानें में तो तुम भी समर्थ नहीं हो; तुम कहो कि लौट जाओ तो तुम्हारी यह आज्ञा हम कैसे पालन करें, सामर्थ्य ही नहीं है पालन करने की! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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