विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों का समर्पण-पक्षश्रीधरस्वामी ने एक दूसरा अभिप्राय और बताया। वह बोलते हैं कि धर्म का पालन करने के लिए धर्म ज्ञान होना चाहिए। धर्म का ज्ञान होता है आचार्य से और आचार्य धर्म का उपदेश करता है तब जब उसकी सेवा करो। बिना सेवा किये ही कोई आचार्य धर्मोपदेश करता हो तो लाउडस्पीकर सड़कर पर घूमे कि तुम्हारा यह धर्म है, तुम्हारा यह धर्म है, तुम्हारा यह धर्म है। जो सेवा नहीं करेगा, उसके हृदय में धर्म-भाना बैठेगी नहीं। गुरु की सेवा करके तब धर्म प्राप्त किया जाता है, फिर धर्म के द्वारा ईश्वर की आराधना की जाती है। गोपी कहती हैं कि ठीक है, श्रीकृष्ण। तुमने आज हमको धर्मोपदेश दिया, तो आओ गुरुजी, पहले तुम्हारी सेवा हमलोग कर लें। उसके बाद हम धर्मपालन करेंगी, क्योंकि बिना गुरु-सेवा के हमारी धर्म-निष्ठा सच्ची नहीं होगी। और एक बात यह है कि धर्म होता है ईश्वर की सेवा के लिए; तो जहाँ ईश्वर और गुरु दोनों एक हो गये वहाँ धर्म और सेवा एक में मिल गये। तो हमारे तुम ईश्वर भी हो, और गुरु भी हो, और हमारा धर्मपालन और तुम्हारी सेवा दोनों एक साथ मिल गये। संस्कृत भाषा में सेवा की अपेक्षा भक्ति शब्द ज्यादा अंतरंग है। यह शब्द की बात बताता हूँ। सेव् और भज्- दोनों धातु सेवा के अर्थ में है। परंतु सेव् धातु आत्मनेपदी है जबकि भज् धातु उपभयपदी है। सेव् से सेवते होता है, सेवति नहीं होता है। जबकि भज् धातु से आत्मनेपदी में भजते बनाता है और परस्मैपदी में भजति बनता है। इसका अर्थ है कि सेवा करने में सेवा जो है वह सेवा का सुख सेवक की ओर ले आता है। जो सेवा करेगा, मेवा पावेगा, सेवा करने वाला सुखी होता है। गुरु की सेवा करके शिष्य सेवा का फल मेवा प्राप्त करेगा। लेकिन ईश्वर की जो भक्ति है, ईश्वर की जो आराधना है, उसमें जब तक भक्ति पहली कक्षा की रहती है, तब तक तो उसका फल अपनी ओर (भक्त की ओर) आता है, जैसे कि हमको यह चाहिए, हमको धर्म चाहिए, काम चाहिए, मोक्ष चाहिए, जो चाहिए सो मिले। परंतु जब भक्ति प्रेम हो जाती है तो उसका फल भक्ति करने वाले की ओर नहीं आता, प्रियतम की ओर चला जाता है। इसीलिए भज् धातु जो है, वह प्रारंभिक दशा में ‘भजते’ (आत्मनेपदी) और पराकाष्ठा में ‘भजति’ (परस्मैपदी) है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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