विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपी के प्रेम की परीक्षा-धर्म का प्रलोभनदृष्टं वनं कुसुमितं- वन में कुसुम लगे हुए हैं- ‘राकेशरञ्जितं’ औषधि-वनस्पति का जो पति है चंद्रमा- सोमोऽस्माकं ब्राह्मणानां राजा- उन्होंने अपने हाथों से रंग दिया हैं कि आओ-आओ। लता वृक्ष के साथ लिपट रही। तुमने प्रकृति की शोभा देख ली। तद् यात- अब लौट जाओ अपने घर को। मा चिरम्- देर मत करो। कहाँ जायँ तो गोष्ठं अपने घर में जाना सबसे बढ़िया है। वहाँ जाकर क्या करें? कहा- शुश्रूषध्वं पतीन्- पति सेवा करो क्योंकि स्त्री के लिए पति परमेश्वर का प्रतीक है। ऐसी सनातन धर्म की मान्यता है। देखो, शालग्राम में नारायण होने का भाव करते हैं, नर्मदा-चक्र में शिव होने का भाव करते हैं और उसमें से मनुष्य अपना परम मंगल, परम कल्याण निकाल लेते हैं और तुम एक चलते-फिरते मनुष्य में परमेश्वर का भाव करके उसमें परमेश्वर को प्रकट नहीं कर सकते? भाव का बड़ा सामर्थ्य है, यह भाव ही संसार के रूप में प्रगट हो रहा है। शिष्य के लिए गुरु, पत्नी के लिए पति, बेटे के लिए माँ-बाप- ये सब परमेश्वर के प्रतीक है इनकी सेवा-सुश्रूषा करो! गोपियों ने कुछ अरुचि दिखायी- सती शुश्रूषध्वं- अरे! जाओ-जाओ, तुम्हारे गाँव में कोई सती-सावित्री हो, तो उसकी सेवा-सुश्रूषा करो, उससे फिर पति सेवा में रुचि हो जाएगी। क्रन्दन्ति वत्सा बालाश्च तान् पाययत दुह्यत- तुम्हारे बछड़े डकरा रहे हैं और बालक जो हैं रो रहे हैं। जाओ, बछड़ों को छोड़ दो गाय के पाँवों में- से उन्हें दूध पिलाओ। बच्चों को दूध पिलाओ, गाय दुहो, अपना धर्म-कर्म पालन करो। इसको छोड़ करके तुम हमारे पास क्यों आयी हो? गोपियाँ तो उत्तरमीमांसा का आश्रय लेकर श्रीकृष्ण के पास गयी थीं- यदहरेव विवरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत्- जब वैराग्य होवे तब ही प्रव्रज्या लेनी चाहिए। श्रीकृष्ण पूर्वमिमांसा का आश्रय लेकर के उपदेश करने लगे- यावज्जीवन धर्मानुष्ठानं करना चाहिए। लेकिन सब श्रुतियों का समन्वय केवल पूर्वमीमांसा से नहीं लगता। श्रीकृष्ण का वचन ही श्रुति-विरुद्ध हो जाएगा। यदि सबको यावज्जीवन धर्मानुष्ठान करना पड़े। देखो- देवर्षि नारद ने कहा- भवतु निश्चयदाढर्यात् ऊर्ध्व शास्त्ररक्षणम्- पहले भगवान् में अपने निश्चय को दृढ़ कर लो, पक्का कर लो, भगवान् से प्रेम हो जाय; फिर जब ऐसा मालूम पड़े कि अब हमारा निश्चय दृढ़ हो गया और यह कभी टूटेगी नहीं कि हम भगवान् का भजन करेंगे। तब लोक-धर्म का ठीक-ठीक पालन करके दूसरों के लिए आदर्श बनाना चाहिए। यदि पहले ही आदर्श बनाने के चक्कर में कोई पड़ जाय और निश्चय दृढ़ न हो तो? अन्यथा पातित्यशंकया- पतित होने की आशंका है। तो क्या करो? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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