विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीजो जैसेहि तैसेहि उठि धायीं-3जारबुद्ध्यापि संगताः- माना कि गोपी को यह नहीं मालूम था कि श्रीकृष्ण परब्रह्म परमात्मा हैं; परंतु प्रेम से मोक्ष में इस बुद्धि की अपेक्षा नहीं है। कई लोग ऐसा मानते हैं कि कर्म से ही बंधन हैं और कर्म से ही मुक्ति है। यह पूर्वमीमांसा का सिद्धांत है। सकामता से बन्धन और निष्कामता से मुक्ति- यह कर्मयोग का पक्ष है। विक्षेप से बन्धन और समाधि से मुक्ति- यह योगियों का मत है। अविवेक से बन्धन और विवेक से मुक्ति- यह सांख्यों का मत है। और अज्ञान से बन्धन और ज्ञान से मुक्ति- यह वेदान्तियों का मत है। तो बन्धन का जैसा हेतु मनुष्य कल्पित करता है उसी के अनुरूप मुक्ति का हेतु उसको कल्पित करना पड़ता है। असल में बन्धन और मुक्ति दोनों कल्पित हैं। यह बन्ध जैसी अवस्था में कल्पित हुआ है। मुक्ति भी वैसी अवस्था में होगी। परंतु व्रज की बात विलक्षण है। ‘जार बुद्ध्यापि संगताः’ वृन्दावन में जितने सम्प्रदाय हैं उनमें निम्बार्क सम्प्रदाय और ‘राधा बल्लभ सम्प्रदाय’- ये दोनों गोपी के कृष्ण प्रेम के जार-भाव नहीं मानते हैं। श्रीचैतन्यसम्प्रदाय और श्रीवल्लभसम्प्रदाय में जार-भाव मानते हैं। रामानुज सम्प्रदाय में भी थोड़ा-थोड़ा मानते हैं। पर उनके यहाँ मुख्य रूप से नारायण की उपासना है, इसलिए वे ज्यादा इधर ध्यान नहीं देते। वहाँ तो राधिका रानी को, गोपियों को, दूसरे ढंग से माना गया है। वैसे श्रीमद्भागवत पर तो टीका सभी की है, सभी सम्प्रदाय की टीका है। निम्बार्क सम्प्रदाय का सिद्धांत प्रदीप है। गौडेश्वर सम्प्रदाय की गई टीकाएँ है- जीव गोस्वामी ने तीन-चार अवस्थाएँ लिखी हैं। सनातन गोस्वामी की है, विश्वनाथ चक्रवर्ती की है। राधावल्लभ सम्प्रदाय की विशुद्ध रस-दीपिका है, रसिक रञ्जनी है; कई छपी हैं, कई नहीं छपी हैं। रामानुज सम्प्रदाय में वीरराघवाचार्य की है, श्रीनिवासाचार्यजी की है, सुदर्शन श्री निवासाचार्य जी की है और सुदर्शन सूरी की है। मध्वाचार्य के सम्प्रदाय में विजयध्वजतीर्थ की है, स्वयं मध्वाचार्य ने ही भगवत-तात्पर्य निर्णय लिखा है। हनुमान की है, चित्सुखाचार्य की है। हम समझते हैं प्राचीन आचार्यों की कोई 35-40 संस्कृत की टीकाएँ आज भी उपलब्ध हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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