विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीजो जैसेहि तैसेहि उठि धायीं-3‘निवृत्याक्षीणमंगलाः’ ऐसा सुख, ऐसा सुख मिला गोपी को कि उसको यदि अपने प्रारब्ध के पुण्य कर्म कोटि जन्मतक फल (सुख) देते रहते तो इतना सुख नहीं मिलता, जितना मन ही मन श्रीकृष्ण का आलिंगन प्राप्त करने से हुआ। इसलिए पाप के फल दुःख और पुण्य के फल सुख जितने उसके जीवन में मिलने वाले थे, वे सब अपना फल देकर नष्ट हो गये। उसका आवरण भंग हो गया। सारे संस्कार निःशेष हो गये। अब तो बाबा, तेरा कोई न रोकनहार, मगन होय मीरा चली। देह की जरूरत प्रारब्ध- भोग करने के लिए हैं, इन्द्रियों की जरूरत प्रारब्ध भोग करने के लिए है, अंतःकरण की जरूरत प्रारब्ध-भोग करने के लिए है, सो कुछ रहा ही नहीं। तब अंतःकरण से, इंद्रियों से और शरीर से संबंध क्यों रहे? सबको छोड़ चली वह। अब एक दूसरा प्रश्न उठाकर और इसका समाधान कर फिर आगे बढ़ता हूँ। प्रश्न यह है कि परमात्मा की प्राप्ति के लिए मर्यादा में ज्ञान की आवश्यकता होती है। यही वेद का कहना है- तमेव विदित्वातिमृत्युमेति बिना ज्ञान के तो मुक्ति नहीं होती। परंतु व्रज की इस गोपी की तो घर-गृहस्थी से, शरीर से, इन्द्रिय से, अंतःकरण से मुक्ति हो गयी। उधर पुष्टि में भक्ति से मुक्ति होती है। पुष्टि और मर्यादा का यही भेद है। पुष्टि में भगवत्-शक्ति से मुक्ति होती है और मर्यादा में जीव का थोड़ा प्रयत्न भी काम करता है। देखो, मर्यादा में कितना आपरस मानते हैं और पुष्टि में तो सबसे परे हो जाते हैं। बल्लभाचार्य जी महाराज के सम्प्रदाय की भाषा है यह पुष्टि और मर्यादा। लेकिन ज्ञान से भक्ति होवे कि भक्ति से मुक्ति होवे यह बात उस समय है जब भगवान प्रकट नहीं रहते हैं, भला। जब भगवान प्रकट नहीं होते हैं, अपने ब्रह्मस्वरूप में अन्तर्यामी हैं, निराकार हैं; निर्विकार हैं, एकरस हैं, निर्धर्मक हैं, तब चाहे जीव ज्ञान प्राप्त करें या भक्ति प्राप्त करें तब मुक्ति होती है। लेकिन जब भगवान स्वयं प्रकट हो जाते है, तब जीव को मुक्ति के लिए ज्ञानभक्ति की जरूरत नहीं होती। भगवान प्रकट ही इसलिए हुए हैं कि जिनको ज्ञान नहीं है, उनको भी अपने हृदय से लगा लें और जिनको भक्ति नहीं है उनको भी अपने हृदय से लगा लें; नहीं तो प्रकट होने की जरूरत नहीं है। कंस, शिशुपाल तो यों ही (संकल्प से ही) मर जाते, रावण हिरण्यकशिपु पैदा ही न होते अगर भगवान चाहते। तो अवतार लेने की जरूरत क्या? अवतार लेते हैं भगवान- लोगों का कल्याण करने के लिए भगवान प्रकट हुए। श्रीमद्भागवत में लिखा है कि महाभारत में युद्ध में श्रीकृष्ण भगवान अर्जुन के रथ में बैठे थे। अर्जुन के बाण में उतना सामर्थ्य नहीं था जितना श्रीकृष्ण की आँखों में और उनके सौन्दर्य में। सबकी आँख खींच लेते थे बिना तीर के, बिना तुक्का के। अर्जुन के रथ पर आगे बैठ गये; बड़े-बड़े वीर जब निशाना मारने लगते, तो उनकी नजर तो चली जाय कृष्ण की ओर। बाण फेंके कहीं और किसी को लगे ही नहीं, और तब तक पाण्डव पक्ष से बाण आवें और उनको मार दें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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