विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीभगवानपि०-रास की भूमिका एवं रास का संकल्पयह कृष्ण ब्रह्म का वर्णन है, कृष्ण ब्रह्म का। जो ब्रह्म को एकांगी मानते हैं कि ऐसा नहीं है, ऐसा नहीं है- तो जो ब्रह्म ऐसा नहीं, ऐसा नहीं होगा वह पूर्ण कैसे होगा? जो ‘ऐसा नहीं’, ‘ऐसा नहीं’ होगा वह अद्वितीय कैसे होगा? जो ‘ऐसा नहीं’ ऐसा- वह निर्विशेष कैसे होगा? यह परब्रह्म परमात्मा श्यामीभूत ब्रह्म है, साँवरा ब्रह्म है-
शबल से श्याम में और श्याम से शबल में। उपनिषद में है- ‘शबलात् श्यामं प्रपद्ये श्यामात् छबलं प्रपद्ये।’ बोले- अशब्दं, अस्पर्शं तो बहुत सुनने में आता है पर हमारे वेदान्ती भूल जाते हैं महाराज! कि- ‘सर्वरसः सर्वगन्धः सर्वकामः’ सारे रस उसमें है, सारे गंध उसमें है, सारे भोग उसमें हैं। हिरण्यकेशः हिरण्यश्मश्रुः, उसके सुनहले बाल हैं उसके मुखमण्डल से सुनहली ज्योति निकलती है। बड़े-बड़े उपनिषद् सर्वमान्य- उपनिषद् बोलते हैं- हिरण्यश्मश्रुः हिरण्यकेशः । आप देखेंगे कि श्रीकृष्ण का रूप जिसको शीशे में देखकर श्रीकृष्ण के मन में क्या आया- अहमपि परिभोक्तुं कामये राधिकेव । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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