रासपंचाध्यायी -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 15

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रासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती

भगवानपि०-रास की भूमिका एवं रास का संकल्प

यह कृष्ण ब्रह्म का वर्णन है, कृष्ण ब्रह्म का। जो ब्रह्म को एकांगी मानते हैं कि ऐसा नहीं है, ऐसा नहीं है- तो जो ब्रह्म ऐसा नहीं, ऐसा नहीं होगा वह पूर्ण कैसे होगा? जो ‘ऐसा नहीं’, ‘ऐसा नहीं’ होगा वह अद्वितीय कैसे होगा? जो ‘ऐसा नहीं’ ऐसा- वह निर्विशेष कैसे होगा? यह परब्रह्म परमात्मा श्यामीभूत ब्रह्म है, साँवरा ब्रह्म है-

पुञ्जीभूतं प्रेम गोपांगनानां मूर्तीभूतं भागधेयं यदूनाम् ।
एकीभूतं गुप्तवित्तं श्रुतीनां, श्यामीभूतं ब्रह्म मे सन्निधत्ताम् ।।
श्यामच्छबलं प्रपद्ये, शबलात् श्यामं प्रपद्ये ।

शबल से श्याम में और श्याम से शबल में। उपनिषद में है- ‘शबलात् श्यामं प्रपद्ये श्यामात् छबलं प्रपद्ये।’ बोले- अशब्दं, अस्पर्शं तो बहुत सुनने में आता है पर हमारे वेदान्ती भूल जाते हैं महाराज! कि- ‘सर्वरसः सर्वगन्धः सर्वकामः’ सारे रस उसमें है, सारे गंध उसमें है, सारे भोग उसमें हैं।

हिरण्यकेशः हिरण्यश्मश्रुः, उसके सुनहले बाल हैं उसके मुखमण्डल से सुनहली ज्योति निकलती है। बड़े-बड़े उपनिषद् सर्वमान्य- उपनिषद् बोलते हैं-

हिरण्यश्मश्रुः हिरण्यकेशः ।

आप देखेंगे कि श्रीकृष्ण का रूप जिसको शीशे में देखकर श्रीकृष्ण के मन में क्या आया-

अहमपि परिभोक्तुं कामये राधिकेव ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

रासपंचाध्यायी -अखण्डानन्द सरस्वती
प्रवचन संख्या विषय का नाम पृष्ठ संख्या
1. उपक्रम 1
2. रास की भूमिका एवं रास का संकल्प 12
3. रास के हेतु, स्वरूप और काल 28
4. रास के संकल्प में गोपी-प्रेम की हेतुता 40
5. रास की दिव्यता का ध्यान 51
6. योगमाया का आश्रय लेने का अर्थ 63
7. योगमायामुपाश्रित:-भगवान की प्रेम-परवशता 75
8. कृपायोग का आश्रय और चंद्रोदय 85
9. रास-रात्रि में पूर्ण चंद्र का दर्शन 96
10. रास में चंद्रमा का योगदान 106
11. भगवान ने वंशी बजायी 116
12. गोपियों ने वंशी-ध्वनि सुनी 127
13. श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों का अभिसार 141
14. जो जैसिह तैसिह उठ धायीं-1 152
15. जो जैसिह तैसेहि उठ धायीं-2 163
16. जो जैसेहि तैसेहि उठि धायीं-3 175
17. जार-बुद्धि से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है 187
18. विकारयुक्त प्रेम से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है 198
19. गोपी दौड़कर गयीं कृष्ण के पास और कृष्ण ने कहा कि लौट-जाओ 209
20. श्रीकृष्ण का अमिय-गरल-वर्षण 214
21. गोपी के प्रेम की परीक्षा-धर्म का प्रलोभन 225
22. ‘लौट-जाओ’ सुनकर गोपियों की दशा का वर्णन 238
23-24. प्रेम में सूखी जा रहीं गोपियाँ आखिर बोलीं 248
(प्रणय-गीत प्रारम्भ)
25. गोपियों का समर्पण-पक्ष 261
26. श्रीकृष्ण में रति ही बुद्धिमानी है 276
27. गोपियों की न लौट पा सकने की बेबसी और मर जाने के परिणाम का उद्घाटन 286
28. गोपियों का श्रीकृष्ण को पूर्व रमण की याद दिलाना 297
29-31. गोपियों में दास्य का उदय 307
32. गोपियों में दास्य का हेतु-1 338
33. गोपियों में दास्य का हेतु-2 353
34. गोपियों में दास्य का हेतु-3 366
35-36. गोपियों की चाहत 376
(प्रणय-गीत समाप्त)
37-39. प्रथम रासक्रीड़ा का उपक्रम 393
40. रास में श्रीकृष्ण की शोभा 429
41. रास-स्थली की शोभा 441
42. रासलीला का अन्तरंग-1 453
43. रासलीला का अन्तरंग-2 467
44. रासलीला का अन्तरंग-3 480
45. रासलीला का अन्तरंग-4 494
46. अंतिम पृष्ठ 500

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