विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों ने वंशी-ध्वनि सुनीउद्धवजी को भगवान् बताते हैं- अरे, उद्धव! तुमको वृन्दावन की बात क्या सुनाऊँ- तास्ताः क्षपाः प्रेष्ठतमेन नीता मय्यैव वृन्दावनगोचरेण । मेरे साथ गोपियों ने एक कल्प की रात को क्षण के समान बिताया और बिना गोपियों के मेरे लिए एक क्षण कल्प के बराबर हो गया। मत्कामा रमणं जारमस्वरूप विदोऽबलाः । वे हजारों-लाखों गोपियाँ मुझे जानती नहीं है कि मैं कौन हूँ; मुझे अपना प्यारा समझती थीं। वे मेरे स्वरूप को प्रात् हुई। मत्कामाः उनके मन में कामना थी, चाहती थी परंतु चाह किसके लिए थी? चाह उसके लिए थी जहाँ जाकर के चाह मटियामेट हो जाती है, जहाँ चाह अपनी नहीं रहती, उसकी रहती है; उसके पास चाह गयी, जहाँ चाह अपनी नहीं रहती उसकी हो गयी। चाह भी उसकी हो गयी। मैं तो उसकी हो गयी, चाह भी उसकी हो गयी। ठगे गये- पहले तो अपनी चाह लेकर गये थे उसके पास कि मेरी चाह पूरी होगी; वहाँ मैं तो रह गयी, चाह भी उसकी हो गयी, अब उसकी चाह चलेगी, हमारी चाह नहीं चलेगी। वर्णन आता है-निजांगमपि या गोप्यो ममेति समुपासते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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