भागवत धर्म मीमांसा8. संसार-प्रवाह(22.6) तस्मादुद्धव ! मा भुंक्ष्व विषयान् असदिंद्रियैः । हे उद्धव! मा भुंक्ष्व विषयान् – तू (इन्द्रियों द्वारा) विषय-भोग में मत पड़े। ये इन्द्रियाँ असत हैं – असत्-इंद्रियैः। ये तुझे ठगेंगी। तू इनके वश में मत जा और पश्य – देख, वैकल्पिकं भ्रमम् – काल्पनिक, भ्रम, जो आत्माग्रहण-निर्भातम् – आत्मतत्त्व के अग्रहण के कारण भासित हो रहा है, क्या भासित होता है? कल्पना, विकल्पों का भ्रम।
समझने की बात है कि मन ही आया-जाया करता है। वह एक लोक से दूसरे लोक में जाता है और उसके पीछे-पीछे आत्मा भी जाता है। यह प्रतिक्षण होता रहता है। लेकिन काल-चक्र अत्यन्त वेग से चलायमान होने के कारण स्थिरता का भास होता है। नदी बह रही है, दीप जल रहा है, मनुष्य भी बदल रहा है। इसलिए अपने को परिवर्तनशील, बदलने वाली देह से अलग कर। यह कपड़ा फटने वाला है। इस फटने वाले कपड़े से अलग न होने के कारण ही मनुष्य स्पर्श-संमूढ़ होता है। इसलिए उद्धव! तू विषयों को छू मत! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत-11.22.56
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