भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 81

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भागवत धर्म मीमांसा

2. भक्त लक्षण

भक्तों के तीन प्रकार
इस (तीसरे) अध्याय के पहले तीन श्लोक ही खास महत्त्व रखते हैं। यहाँ भक्तों के तीन दर्जे किए गए हैं। इस तरह से भक्तों के दर्जे और कहीं किए गए नहीं दीखते।

'
(3.1) सर्व-भूतेषु यः पश्येत् भगवद्भावमात्मनः।
भूतानि भगवत्यात्मन्येष भागवतोत्तमः।।[1]

पहला वर्ग है सर्वोत्तम भक्त का। भागवतोत्तमः का अर्थ है उत्तम भक्त। उत्तम भक्त कौन होगा? यः सर्वभूतेषु भगवद्भावम् आत्मनः पश्येत्- जो सब भूतों में भगवान को देखेगा और अपने को भी देखेगा। यहाँ दुगुना विचार कहा गया है 
सब भूतों में भगवान की भावना और अपनी भी भावना करना।


मित्र- मंडली में अपनी भावना करना सरल है, किंतु सब भूतों में अपने को देखना थोड़ा कठिन है। पर यहाँ कहा गया है कि सब भूतों में अपना ही दर्शन होना चाहिए। प्रथम अपना दर्शन और फिर भगवान का दर्शन।

सोचने की बात है कि सब भूतों में अपने को देखना सरल है या भगवान को देखना? भगवान को देखना सरल लगता है, लेकिन यदि किसी की भगवान पर श्रद्धा न हो तो उसके लिए सब भूतों में अपने को देखना ही एक तरीका होगा। वैसे तो यह बात कठिन अवश्य है। माँ अपने बच्चे में अपने को देखती है, लेकिन दूसरे के बच्चों के लिए उसकी वह भावना नहीं रहती। इसलिए भगवान की ज्योति सबमें है, यह मानना आसान लगता है। फिर भी उसके लिए ईश्वर पर श्रद्धा चाहिए। वैसी श्रद्धा न हो तो सबमें अपनी भावना करना अधिक सरल होगा। यह नास्तिकों के लिए सहूलियत है।

फिर दूसरी बात बतायी : भूतानि भगवति आत्मनि एषः पश्येत्- भक्त सब भूतों को भगवान में, अपने में भी देखता है। यानि सब ओतप्रोत है। मतलब यह कि भगवान में प्राणिमात्र हैं और प्राणिमात्र में भगवान है। हममें सब भूत हैं और सब भूतों में हम हैं- ये चार बातें समझा दीं।

वैसे देखा जाय तो दुनिया में अनेक भेद हैं, लेकिन जड़, चेतन और परमात्मा, ये प्रमुख भेद हैं। उनमें भी अवान्तर भेद हैं। जड़ यानि सारी अचेतन सृष्टि। सृष्टि में पत्थर, पानी, पेड़, पहाड़, ये सारे भेद पड़े हैं। घड़ी, कुर्सी, चश्मा, ये भेद भी हैं। एक का काम दूसरी वस्तु नहीं कर पाती। इसी तरह चेतन-चेतन में भी भेद हैं। मनुष्य अलग और गदहा अलग। यही क्यों, मनुष्य-मनुष्य में भी भेद हैं। जैसे परमेश्वर और जड़ में भेद होता है, वैसे ही परमेश्वर और चेतन में भी है। तो, कुल मिलाकर पाँच प्रकार के भेद हुए :

  1. जड़-चेतन,
  2. जड़-जड़,
  3. चेतन-चेतन,
  4. परमेश्वर-जड़ और
  5. परमेश्वर-चेतन।

किंतु भागवत ये सारे भेद खतम करने की बात कह रही है। इन पाँचों भेदों में जो अभेद देखेगा, वही उत्तीर्ण होगा। वह ‘भागवतोत्तम:’ होगा यानि उत्तम भक्त होगा। प्रथम श्रेणी का, पहले दर्जे का भक्त होगा। इस तरह की आशा रखना तो ठीक ही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत-11.2.45

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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