भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 89

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भागवत धर्म मीमांसा

3. माया-संतरण

'
(4.1) कर्माण्यारभमाणानां दुःख-हत्यै सुखाय च।
पश्येत् पाक-विपर्यासं मिथुनो-चारिणां नृणाम्॥[1]

माया को कैसे तैर जाना, इसकी चर्चा चल रही है। लोग तरह-तरह के अनेक कर्म शुरू कर देते हैं। किसलिए?

  • दुःखहत्यै सुखाय च- दुःख से मुक्ति और सुख की प्राप्ति के लिए। लोग चाहते हैं कि सुख की प्राप्ति और दुख का परिहार हो। सुख मिले और दुख टले। इसी उद्देश्य से भिन्न-भिन्न कर्म शुरू कर देते हैं। लेकिन होता क्या है?
  • पश्येत् पाक- विपर्यासम्- परिणाम उलटा ही दीखता है। उनसे दुःख ही मिलता है और सुख खोया जाता है। कर्म का आरंभ किया था सुख के लिए। सांसारिक कार्य किया, घर बनाया, खेतीबारी शुरू की, नौकरी की। सब कुछ दुख निवारण और सुख प्राप्ति के लिए किया। लेकिन परिणाम विपरीत आया। इसलिए यह ध्यान में रखें कि मिथुनी-चारिणां नृणाम्- विषयासक्त पुरुषों द्वारा सुखार्थ किए गये सभी प्रयत्नों के परिणाम कल्पना से विपरीत होते हैं।
  • पश्येत्- भागवतकार इस बात पर गौर करने के लिए कहते हैं। माया संतरण का यह पहला पाठ है।

एक बड़े बादशाह की 20-25 साल तक रोज़ लिखी डायरी है। इतने दिनों की कुल डायरी में केवल 11-12 दिन ही ऐसे हैं, जहाँ लिखा है कि ‘दिन सुख से बीता।’ बाकी सारे दिन दुख में बीते। बादशाह तो बड़े-बड़े काम करता था, उसकी सारी ज़िंदगी काम में ही बीती। लेकिन परिणाम यह आया कि केवल 12 दिन सुख के मिले। मानसिक-शारीरिक उपाधिकृत और परिस्थितिकृत दुःख अनेक प्रकार के होते हैं। इनमें से एक भी प्रकार के दुःख से रहित कितने दिन बीते, यह लिखा जाय तो ध्यान में आएगा कि बहुतों की स्थिति उस बादशाह जैसी ही है। गरीबों के जीवन में ऐसे दिन कुछ अधिक आते होंगे, मध्यवित्त लोगों में उनसे कम, तो बड़ों के जीवन में बहुत कम आते होंगे। फिर भी दुःख निवारण और सुख-प्राप्ति के लिए उन सभी द्वारा किए गए प्रयत्नों का परिणाम विपरीत ही सिद्ध होता है।

इसमें साधना का पहला क़दम बताया गया है। यदि चित्त में यह कल्पना कायम रहे कि ‘सुख प्राप्ति के लिए किए जा रहे प्रयत्नों से निश्चय ही सुख होता है; वह न होता तो हमारे पिता, उनके पिता, उनके भी पिता इसी रास्ते से क्यों जाते?’ तो साधना का आरंभ ही न होगा। अतः साधना के आरंभ के लिए यह भान होना चाहिए, विवेक होना चाहिए, पहचान होनी चाहिए कि सुख प्राप्ति के लिए किए जा रहे प्रयत्न निश्चित दुख में ही परिणत होते हैं और उन प्रयत्नों की दिशा गलत है। माया-संतरण का यह प्रथम कदम है। फिर क्या कहते हैं?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत-11.3.18

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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