भागवत धर्म मीमांसा3. माया-संतरण' माया को कैसे तैर जाना, इसकी चर्चा चल रही है। लोग तरह-तरह के अनेक कर्म शुरू कर देते हैं। किसलिए?
एक बड़े बादशाह की 20-25 साल तक रोज़ लिखी डायरी है। इतने दिनों की कुल डायरी में केवल 11-12 दिन ही ऐसे हैं, जहाँ लिखा है कि ‘दिन सुख से बीता।’ बाकी सारे दिन दुख में बीते। बादशाह तो बड़े-बड़े काम करता था, उसकी सारी ज़िंदगी काम में ही बीती। लेकिन परिणाम यह आया कि केवल 12 दिन सुख के मिले। मानसिक-शारीरिक उपाधिकृत और परिस्थितिकृत दुःख अनेक प्रकार के होते हैं। इनमें से एक भी प्रकार के दुःख से रहित कितने दिन बीते, यह लिखा जाय तो ध्यान में आएगा कि बहुतों की स्थिति उस बादशाह जैसी ही है। गरीबों के जीवन में ऐसे दिन कुछ अधिक आते होंगे, मध्यवित्त लोगों में उनसे कम, तो बड़ों के जीवन में बहुत कम आते होंगे। फिर भी दुःख निवारण और सुख-प्राप्ति के लिए उन सभी द्वारा किए गए प्रयत्नों का परिणाम विपरीत ही सिद्ध होता है। इसमें साधना का पहला क़दम बताया गया है। यदि चित्त में यह कल्पना कायम रहे कि ‘सुख प्राप्ति के लिए किए जा रहे प्रयत्नों से निश्चय ही सुख होता है; वह न होता तो हमारे पिता, उनके पिता, उनके भी पिता इसी रास्ते से क्यों जाते?’ तो साधना का आरंभ ही न होगा। अतः साधना के आरंभ के लिए यह भान होना चाहिए, विवेक होना चाहिए, पहचान होनी चाहिए कि सुख प्राप्ति के लिए किए जा रहे प्रयत्न निश्चित दुख में ही परिणत होते हैं और उन प्रयत्नों की दिशा गलत है। माया-संतरण का यह प्रथम कदम है। फिर क्या कहते हैं? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत-11.3.18
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