भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 112

Prev.png

भागवत धर्म मीमांसा

5. वर्णाश्रम-सार

इस अध्याय में वर्णाश्रम का सार वर्णन किया गया है। प्रायः माना जाता है कि वह ठीक भी है कि वर्णाश्रम-व्यवस्था हिन्दू-धर्म की एक विशेष कल्पना है। हमारे यहाँ जो जातियाँ निर्माण हुई हैं, उनके साथ वर्ण का कोई सम्बन्ध नहीं। वर्ण गुणानुसार हैं, तो जाति कर्मानुसार। ये जातियाँ बाद में पैदा हुईं, जो वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध हैं। वर्ण-व्यवस्था में जातिभेद की गुंजाइश नहीं, ऊँच-नीच की भावना नहीं। केवल गुणानुसार कर्मों का बँटवारा मात्र है। वेदों का मत है :

 स्वे स्वे अधिकारे या निष्ठा स गुणः परिकीर्तितः।

‘अपने-अपने कर्तव्य के बारे में निष्ठा रखना ही गुण है और उसका न होना ही दोष है।’ इसलिए समाज के उपयोगी को कर्म हैं, उनमें कोई ऊँच-नीच नहीं है। ट्रेन का इंजन चलाने वाला जितने महत्त्व का काम करता है, उतने ही महत्त्व का काम ट्रेन को हरी या लाल झंडी दिखाने वाला भी करता है। यदि वह गलती करे, तो ट्रेन के लिए खतरा है। इसलिए उसका महत्त्व कम नहीं है। इंजन चलाने वाले ड्राइवर का ज्ञान अधिक है, इसलिए उसका अधिकार बड़ा है। झंडी दिखाने वाले के पास अधिक ज्ञान नहीं, अधिक शक्ति नहीं, इसलिए उसका अधिकार छोटा है। लेकिन छोटा अधिकार होने पर भी उसका महत्त्व कम नहीं। यदि वह अपने छोटे अधिकार का पूरी निष्ठा से पालन करता है, तो परमात्मा के दरबार में उसकी योग्यता कम नहीं है। यही वेद-रहस्य है। तो, वर्णों का विभाजन उनके गुणानुसार किया गया है। उसमें ऊँच-नीच भावना नहीं है।


लेकिन भागवत ने एक और बात बतायी, जो ‘मनुस्मृति’ में भी है :

(17.1) अहिंसा सत्यमस्तेयं अकामक्रोधलोभता ।
भूतप्रिय-हितेहा। च धर्मोऽयं सार्व-वर्णिकः ॥[1]

कुछ काम भिन्न-भिन्न वर्णों में बाँट दिये हैं। ब्राह्मण के लिए यह काम, क्षत्रिय के लिए यह काम, वैश्य के लिए यह काम, शूद्र के लिये यह काम – इस तरह काम बाँटे गये। लेकिन कुछ काम ऐसे बताये, जो सबको करने चाहिए। उन्हें भागवत ने नाम दिया है ‘सार्व-वर्णिक धर्म’। सार्व-वर्णिक का अर्थ है जो सब वर्णों को लागू हो। कुछ कर्तव्य ऐसे हैं, जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सबको लागू होते हैं।


यह सार्व-वर्णिक धर्म कौन-सा है? अहिंसा सत्यम् अस्तेयम् –हिंसा न करना अहिंसा, चोरी न करना अस्तेय और सत्य यानि सच्चाई। यह सब वर्णों की जिम्मेवारी है। समाज में जितने भी वर्ण हैं – चारों वर्ण, उन सबकी जिम्मेवारी है कि वे अहिंसा का पालन करें, सत्य का पालन करें और अस्तेय का पालन करें।

इन तीनों के अलावा और भी सार्व-वर्णिक कर्तव्य बताये गये हैं :अकाम-क्रोध-लोभता – काम-क्रोध और लोभ न रखना। गीता कहती है कि ये तीन नरक के द्वार हैं :

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत-11.17.21

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः