भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 56

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21. वेद-तात्पर्य

 
1. स्वे स्वेऽधिकारे या निष्ठा स गुणः परिकीर्तितः।
विपर्ययस्तु दोषः स्यात् उभयोरेष निश्चयः॥
अर्थः
अपने-अपने अधिकारानुसार कर्तव्य कर्म में निष्ठा होना ‘सद्गुण’ है, इस तरह उसकी प्रशंसा की गयी है। इसके विपरीत अपने कर्तव्य के विषय में निष्ठा न होना ‘दोष’ है। गुण-दोण का यह निश्चित लक्षण है।
 
2. परोक्षवादो वेदोऽयं बालानां अनुशासनम्।
कर्म-मोक्षाय कर्माणि विधत्ते ह्यगदं यथा॥
अर्थः
जिस तरह बच्चों को औषधि पिलाते या अनुशासन में रखते समय मिठाई आदि देकर फुसलाया जाता है, उसी तरह कर्मों से छुटकारा पाने के लिए अज्ञ पुरुषों को वेद कर्म ही करने का उपदेश देता है। कारण, वह परोक्षप्रिय है यानि घुमा फिराकर बताना उसे पसंद है।
 
3. वेदोक्तमेव कुर्वाणो निःसंगोऽर्पितमीश्वरे।
नैष्कर्म्यां लभते सिद्धिं रोचनार्था फलश्रुतिः॥
अर्थः
फल की आशा छोड़कर ईश्वरार्पण बुद्धि से वेदोक्त कर्मों का ही जो अनुष्ठान करता है, उसे कर्मों से निवृत्ति कराने वाली सिद्धि अर्थात कर्मातीत अवस्था प्राप्त होती है। स्वर्ग-प्राप्ति आदि फल जो वेदों में बताए गये हैं, उनका तात्पर्य रुचि पैदा करना है।
 
4. शब्द-ब्रह्म सुदुरबोधं प्राणेंद्रिय-मनो-मयम्।
अनंतपारं गंभीरं दुर्विगाह्यं समुद्रवत्॥
अर्थः
शब्द-ब्रह्म का अर्थ है वेद। उसका रहस्य समझना कठिन है। वह प्राण, मन और इंद्रियों के रूप से (परा, पश्यंती और मध्यमा वाणी के रूप से) प्रकट होता है। वह समुद्र की तरह असीम, गंभीर और अगाध है।

5. मां विधत्तेऽभिधत्ते मां विकल्प्यापोह्यते त्वहम्।
ऐतावान् सर्ववेदार्थः शब्द आस्थाय मां भिदाम्।
मायामात्रं अनूधात्ते प्रतिषिद्ध्य प्रशाम्यति।।
अर्थः
वेद मेरे विषय में विधि बताता है, मेरा वर्णन करता है और वेद द्वारा शब्दों से विविध रूप में जिसे-जिसे लक्ष्य कर विश्वकर्ता आदि नाना कल्पनाएँ की जाती और मिटायी जाती है, वह भी मैं (परमात्मा) हूँ- यही संपूर्ण वेदों का सार है।
 
6. शब्द-ब्रह्मणि निष्णातो न निष्णायात् परे यदि।
श्रमस् तस्य श्रम-फलो ह्यधेनुमिव रक्षतः।।
अर्थः
यदि कोई शब्द-ब्रह्म यानि वेद का शाब्दिक विद्वान हो जाए, किंतु परब्रह्म के ज्ञान से वंचित रहे, तो उसके उस श्रम का- उसके कष्ट से अर्जित वेद ज्ञान का- फल केवल श्रम ही है। ठाँठ गाय को पालने वाले पुरुष के श्रम की तरह वह श्रम भी व्यर्थ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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