भागवत धर्म मीमांसा9. पारतन्त्र्य-मीमांसा (24.1) गुणाः सृजन्ति कर्माणि गुणोऽनुसृजते गुणान् । स्वातन्त्र्य-प्राप्ति के लिए क्या करना चाहिए? मन से ऊपर उठना चाहिए। उसके बिना स्वातत्र्य संभव नहीं। सारे झमेले मन के ही कारण खड़े होते हैं। शत्रु मित्र बनते हैं, वे भी मन के ही कारण। इसिलए मन से ऊपर उठना चाहिए। फिर भूतों का भी डर नहीं रहेगा। कहा जाता है कि सर्वत्र पारतन्त्र्य है। किस कारण? स्पष्ट है कि मन के कारण। मन से गुण पैदा होते हैं। मनो गुणान् वै सृजते बलीयः – बलवान मन गुण पैदा करता है। फिर गुणों से विलक्षण कर्म बनते हैं और फिर उन कर्मों से सारी चीजें पैदा होती हैं, झमेला खड़ा होता है। इसलिए मन से अलग रहें। लेकिन मन से अलग होना कठिन जाता है। यदि वह आसानी से न सधे, तो क्या करें? गुणों से अलग हो जाएँ। आसान युक्ति बता दी। कर्म कौन पैदा करता है? गुण। गुण कर्म पैदा करता है और फिर कर्म के अनुसार एक गुण से अनेक गुण पैदा होते हैं। फिर उन गुणों से कर्म पैदा होते हैं और कर्म से गुण – यह चक्र चलता ही रहता है। इस तरह गुणों की सन्तति चालू होता है – अनसृजते। अनु का अर्थ है कर्मानुसारेण, गुणान् सजते। इस तरह गुण-जाल बढ़ता ही जाता है। फिर जीवस्तु गुणसंयुक्तः – जीव गुण-संयुक्त बनता है। कर्म तो पैदा करता है गुण, लेकिन भोगता है यह बेवकूफ़ जीव! जीव मानता है कि ‘यह मैंने किया, वह मैंने किया।’ वास्तव में गुण ने कर्म किये, लेकिन जीव निष्कारण गुणसंयुक्त होकर कर्म भोगता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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