भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 138

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भागवत धर्म मीमांसा

9. पारतन्त्र्य-मीमांसा

 (24.1) गुणाः सृजन्ति कर्माणि गुणोऽनुसृजते गुणान् ।
जीवस्तु गुणसंयुक्तो भुंक्ते कर्मफलान्यसौ ॥[1]
(24.2) यावत् स्याद् गुणवैषम्यं तावन्नानात्वमात्मनः।
नानात्वमात्मनो यावत् पारतंत्र्यं तदैव हि ॥[2]

स्वातन्त्र्य-प्राप्ति के लिए क्या करना चाहिए? मन से ऊपर उठना चाहिए। उसके बिना स्वातत्र्य संभव नहीं। सारे झमेले मन के ही कारण खड़े होते हैं। शत्रु मित्र बनते हैं, वे भी मन के ही कारण। इसिलए मन से ऊपर उठना चाहिए। फिर भूतों का भी डर नहीं रहेगा। कहा जाता है कि सर्वत्र पारतन्त्र्य है। किस कारण? स्पष्ट है कि मन के कारण।

मन से गुण पैदा होते हैं। मनो गुणान् वै सृजते बलीयः – बलवान मन गुण पैदा करता है। फिर गुणों से विलक्षण कर्म बनते हैं और फिर उन कर्मों से सारी चीजें पैदा होती हैं, झमेला खड़ा होता है। इसलिए मन से अलग रहें।

लेकिन मन से अलग होना कठिन जाता है। यदि वह आसानी से न सधे, तो क्या करें? गुणों से अलग हो जाएँ। आसान युक्ति बता दी। कर्म कौन पैदा करता है? गुण। गुण कर्म पैदा करता है और फिर कर्म के अनुसार एक गुण से अनेक गुण पैदा होते हैं। फिर उन गुणों से कर्म पैदा होते हैं और कर्म से गुण – यह चक्र चलता ही रहता है। इस तरह गुणों की सन्तति चालू होता है – अनसृजते। अनु का अर्थ है कर्मानुसारेण, गुणान् सजते। इस तरह गुण-जाल बढ़ता ही जाता है। फिर जीवस्तु गुणसंयुक्तः – जीव गुण-संयुक्त बनता है। कर्म तो पैदा करता है गुण, लेकिन भोगता है यह बेवकूफ़ जीव! जीव मानता है कि ‘यह मैंने किया, वह मैंने किया।’ वास्तव में गुण ने कर्म किये, लेकिन जीव निष्कारण गुणसंयुक्त होकर कर्म भोगता है।


जब तक यह गुण-वेषम्य यानि गुणों का चढ़ाव-उतार जारी रहेगा, तब तक आत्मा का नानात्व बना रहेगा। तब तक एक ही आत्मा अलग-अलग दीखेगा, आत्मा में भेद रहेगा। फिर किसी में कुछ गुण यानि विशेषता या कमी रही, तो उसी पर ध्यान जायेगा। जब तक इसमें यह गुण है, उसमें वह दोष है – इस ओर ध्यान जायेगा तब तक आत्मा में भेद रहेगा और तब तक पारतन्त्र्य भी स्थिर रहेगा।


पारतन्त्र्य कब तक रहेगा? जब तक ‘पर’ रहेगा। स्वतन्त्र होने के लिए कहा जाता है कि ‘दूसरों का ताबा हटाओ!’ पर भागवत कहती है कि ‘दूसरा ही हटाओ!’ पारतन्त्र्य में लोग दूसरों का ताबा हटाना चाहते हैं, ‘पर’ को नहीं। लेकिन जब तक ‘पर’ नहीं हटता, तब तक कुछ नहीं बनेगा। दो राष्ट्रों में तब तक मित्रता नहीं बनेगी, जब तक ‘पर’ नहीं हटता। ‘पर’ हटेगा, तो विश्व एक बनेगा।


आज सर्वत्र कोशिश चल रही है, अपने पर से दूसरों का ताबा हटाने की। इसी को ‘स्वातन्त्र्य’ कहा जाता है। भागवत कहती है, ताबा हटाने की क्या बात! ‘दूसरा’, यही चीज हटाओ। ‘पर’ को कायम रखना पारतन्त्र्य को ही कायम रखना है। जब तक आत्मा में भेद रहेगा, तब तक पारतन्त्र्य रहेगा। इस भेद को, ‘पर’ को हटाने के लिए क्या करना होगा? गुण-वैषम्य हटाना होगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत-11.10.31
  2. भागवत-11.10.32

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भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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