भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 136

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भागवत धर्म मीमांसा

8. संसार-प्रवाह

(22.4) निषेक-गर्भ-जन्मानि बाल्य-कौमार-यौवनम् ।
वयोमध्यं जरा मृत्युर् इत्यवस्थास् तनोर् नव ॥[1]

यहाँ मनुष्य की नौ अवस्था बतायी गयी हैं। [2] वीर्य-बिन्दु से लेकर मृत्यु तक नौ अवस्थाएँ। शेक्सपीयर ने ‘सेवन स्टेजेज़ ऑफ मैन’ (मनुष्य की सात अवस्थाएँ) लिखा है। मनुष्य नाटक कर रहा है और वह सात अवस्थाओं में प्रकट होता है। पर भागवत नौ अवस्थाएँ बता रही है। भावार्थ यही है कि बचपन से मरने तक वही शरीर नहीं रहता और मन भी वह नहीं रहता। लेकिन इतना होते हुए भी आत्मा सत्य है। परिणाम क्या होता है? कहते हैं :

(22.5) प्रकृतेरेवमात्मानं अविविच्याबुधः पुमान् ।
तत्त्वेन स्पर्श-संमूढः संसारं प्रतिपद्यते ॥[3]

प्रकृति का, मन का प्रवाह बह रहा है, लेकिन आत्मा अखण्ड कायम है। नदियों का पानी बहता ही रहता है। पुराना जाता और नया आता है, लेकिन नदी कायम है। उसका मूल कायम है। ठीक इसी तरह आत्मा प्रकृति से अलग है, मन से भी अलग है। फिर भी हम आत्मा को प्रकृति से अलग नहीं करते : अविविच्य – अविवेक के कारण। धान का छिलका हटाने पर ही हमें चावल मिलता है। छिलका हटाना ही पड़ता है। लेकिन मूर्ख मनुष्य प्रकृति से, मन से आत्मा को अलग नहीं समझता। अतएव वह स्पर्श-संमूढ बनता है, यानि स्पर्श के मोह में पड़कर फँसता है। इसी कारण उसके पीछे संसार लग जाता है। यहाँ विषयासक्त को ‘स्पर्श-संमूढ’ कहा है। जो स्पर्श के मोह में पड़ता है, वह मरे हुए मनुष्य को भी पकड़ता है, विवेक नहीं करता।


विवेक के अभाव में ही मनुष्य स्पर्श-संमूढ बनता है। फिर संसार प्राप्त करता है। संसार यानि बहना। इसलिए तत्त्वेन – तत्त्वज्ञान से, प्रकृतेः – प्रकृति से, आत्मानम् – आत्मा को, अलग कर लेना चाहिए। अविविच्य – अविवेक के कारण मनुष्य ऐसा न करके। अबुधः – मूढ़ बनता है।


आखिर में भगवान उद्धव को आज्ञा दे रहे हैं। उद्धव भगवान का बड़ा प्यारा था। भगवान के दो प्रिय मित्र थे – अर्जुन और उद्धव। अर्जुन को उन्होंने ‘गीता’ में उपदेश दिया है। तो उद्धव को ‘भागवत’ में। अर्जुन से कृष्ण सोलह साल बड़े थे, लेकिन उद्धव तो कृष्ण के बालमित्र थे, बालपन के साथी! इसीलिए बड़े प्यार से उसे कह रहे हैं :

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत-11.22.46
  2. 1. गर्भाधान, 2. गर्भवद्धि, 3. जन्म, 4. बाल्य, 5. कौमार, 6. यौवन, 7. प्रौढ़ावस्था, 8. जरा और 9. मृत्यु – ये वे अवस्थाएँ हैं।
  3. भागवत-11.22.50

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भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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