ज्ञानेश्वरी पृ. 97

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-3
कर्मयोग


आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥39॥

उसी प्रकार काम और क्रोध से ढँके होने के कारण ज्ञान स्वयं शुद्ध होने पर भी गूढ़ बना रहता है, इसी कारण ज्ञान-प्राप्ति की कठिनता मालूम होती है। अब यदि यह कहें कि सबसे पहले इन काम और क्रोध को जीतना चाहिये और तब ज्ञान का सम्पादन करना चाहिये, तो काम-क्रोधरूपी राक्षसों का पराभव होना सम्भव नहीं होता। यदि यह कहें कि इन काम, क्रोध आदि राक्षसों को मारने के लिये अपने शरीर में शक्ति-सामर्थ्य लानी चाहिये, तो जैसे ईंधन आग की सहायता ही करता है।[1]


इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥40॥

वैसे ही जो-जो उपाय किये जायँ, वे सब-के-सब इन्हीं के सहयोग में लग जाते हैं। इसीलिये काम और क्रोध-ये दोनों हठयोगियों को बहुत परेशान करते हैं अर्थात् इन लोगों को जीत लेते हैं। ऐसे ये जो काम-क्रोध जीतने में अत्यन्त कठिन हैं, तो भी उनको जीतने का एक अच्छा (श्रेष्ठ) उपाय है; वह तुम्हारे से हो जाय तो उसे बतलाता हूँ।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (263-265)
  2. (266-267

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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