श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-3
कर्मयोग
सत्य का सार निकालकर उसमें असत्य का भूसा भरने वाला जो दम्भ है, वह भी इन्हीं सबके संसार में (साथ में) निवास करता है। इन्होंने ही साध्वी शान्ति को लूटकर मायारूपी भिखारिन का श्रृंगार किया है और उससे साधुओं के समूहों को भ्रष्ट किया है। इन्होंने ही न केवल विवेक का आश्रय स्थल तोड़ डाला है, अपितु वैराग्य के शरीर का चमड़ा भी उधेड़ डाला है। इतना ही नहीं, इन्होंने जीते-जी उपशम का गला घोंट डाला है, सन्तोषरूपी वन को काट डाला है, धैर्यरूपी दुर्ग को ध्वस्त कर दिया है और आनन्दरूपी पौधे को उखाड़कर फेंक दिया है। इन्होंने उपदेश की एकता को ही विनष्ट कर डाला है, सुख का नामोनिशान तक मिटा दिया है और संसार के अन्तःकरण में तीनों तापों की आग लगा दी है। ज्यों ही ये किसी के शरीर में आकर लगते हैं, त्यों ही जीव के साथ आकर चिपक जाते हैं और तब खोजने से भी ये ब्रह्मा आदि के हाथ नहीं लगते। ये चैतन्य के अत्यन्त ही निकट ज्ञान की पंक्ति में जा बैठते हैं और जब अपना कार्य एक बार शुरू कर देते हैं, तब फिर रोके नहीं रुकते। ये प्राणियों को बिना पानी के ही डुबा देते हैं, अग्नि के बिना ही जला डालते हैं और बिना बोले ही अपने चंगुल में जकड़ लेते हैं। ये बिना शस्त्रों के ही प्राण हर लेते हैं, बिना डोरी के ही फँसा लेते हैं और शर्त लगाकर ज्ञानियों की भी हत्या कर डालते हैं। ये बिना कीचड़ के ही प्राणियों को जमीन में गाड़ देते हैं, बिना फाँस के ही फँसा लेते हैं तथा अपने प्रबल बल के कारण किसी से हार नहीं मानते।[1]
जैसे चन्दन के मूल में सर्प लिपटा रहता है अथवा गर्भाशय का आँवल (जेर) जैसे गर्भ को चारों ओर से ढके रहता है अथवा जैसे प्रकाश के बिना सूर्य, धूम्र के बिना अग्नि, मल के बिना दर्पण कभी दिखायी ही नहीं पड़ता, ठीक वैसे ही काम और क्रोध के बिना अब तक मेरी दृष्टि में कोई ज्ञान आया ही नहीं। जिस प्रकार बीज छिलके से ढँका हुआ उत्पन्न होता है।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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