श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-3
कर्मयोग
काम और क्रोध का मूल निवास इन्द्रियों में होता है। इन्हीं इन्द्रियों से कर्म की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। इसलिये सर्वप्रथम इन इन्द्रियों को ही अपने अधीन रखना चाहिये।[1]
ऐसा करने से मन की दौड़ बन्द हो जाती है, बुद्धि का छुटकारा हो जाता है और इन पापियों का आश्रय ही नष्ट हो जाता है।[2]
जिस समय ये अन्तःकरण से बाहर निकाल दिये जाते हैं, उस समय निश्चय ही इनका पूर्णरूप से सफाया हो जाता है। जैसे सूर्य की रश्मियों के बिना मृग-जल नहीं होता, वैसे ही यह जान लेना चाहिये कि यदि काम-क्रोध आदि का नाश हो जाय तो ब्रह्मज्ञान का साम्राज्य अपने-आप मिल जाता है और फिर जीव अपने आत्मानन्द में सुखपूर्वक रहता है अर्थात् उस दिव्य सुख का उपभोग करता है। जो गुरु और शिष्य के संवाद में आने वाले विचार से प्राप्त होने वाली जीव और ब्रह्म की भेंट है, उसी स्थिति में स्थिर होकर कभी भी उससे विचलित मत होना।” संजय ने धृतराष्ट्र से कहा-“हे महाराज! सुनिये-जो समस्त सिद्धों के राजा, देवी लक्ष्मी के स्वामी और देवों के देव भगवान् श्रीकृष्ण हैं‚ उन्होंने ये सारी-की-सारी बातें कहीं।” अनन्त फिर एक और महत्त्व की बात बतलावेंगे और पाण्डुपुत्र अर्जुन भी कुछ प्रश्न खड़े करेंगे। उस संवाद की योग्यता और रसालता के कारण उसका वर्णन श्रोतागणों के लिये श्रवण-सुख का सुकाल ही होगा। इसलिये श्रीनिवृत्तिनाथ का शिष्य मैं ज्ञानदेव कहता हूँ कि आप लोग अपनी बुद्धि को भली-भाँति जाग्रत करे इस श्रीहरि और पार्थ के संवाद के माधुर्य का रसास्वादन करें।[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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