ज्ञानेश्वरी पृ. 98

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-3
कर्मयोग


तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥41॥

काम और क्रोध का मूल निवास इन्द्रियों में होता है। इन्हीं इन्द्रियों से कर्म की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। इसलिये सर्वप्रथम इन इन्द्रियों को ही अपने अधीन रखना चाहिये।[1]


इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन: ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु स: ॥42॥

ऐसा करने से मन की दौड़ बन्द हो जाती है, बुद्धि का छुटकारा हो जाता है और इन पापियों का आश्रय ही नष्ट हो जाता है।[2]


एवं बुद्धे परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥43॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भवद्‌गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्या योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्याय:॥3॥

जिस समय ये अन्तःकरण से बाहर निकाल दिये जाते हैं, उस समय निश्चय ही इनका पूर्णरूप से सफाया हो जाता है। जैसे सूर्य की रश्मियों के बिना मृग-जल नहीं होता, वैसे ही यह जान लेना चाहिये कि यदि काम-क्रोध आदि का नाश हो जाय तो ब्रह्मज्ञान का साम्राज्य अपने-आप मिल जाता है और फिर जीव अपने आत्मानन्द में सुखपूर्वक रहता है अर्थात् उस दिव्य सुख का उपभोग करता है। जो गुरु और शिष्य के संवाद में आने वाले विचार से प्राप्त होने वाली जीव और ब्रह्म की भेंट है, उसी स्थिति में स्थिर होकर कभी भी उससे विचलित मत होना।”

संजय ने धृतराष्ट्र से कहा-“हे महाराज! सुनिये-जो समस्त सिद्धों के राजा, देवी लक्ष्मी के स्वामी और देवों के देव भगवान् श्रीकृष्ण हैं‚ उन्होंने ये सारी-की-सारी बातें कहीं।” अनन्त फिर एक और महत्त्व की बात बतलावेंगे और पाण्डुपुत्र अर्जुन भी कुछ प्रश्न खड़े करेंगे। उस संवाद की योग्यता और रसालता के कारण उसका वर्णन श्रोतागणों के लिये श्रवण-सुख का सुकाल ही होगा। इसलिये श्रीनिवृत्तिनाथ का शिष्य मैं ज्ञानदेव कहता हूँ कि आप लोग अपनी बुद्धि को भली-भाँति जाग्रत करे इस श्रीहरि और पार्थ के संवाद के माधुर्य का रसास्वादन करें।[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (268)
  2. (269)
  3. (270-276)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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