श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
माता जिस समय अपने बालक को भोजन कराने बैठती है, उस समय वह उसके मुख में इतने छोटे-छोटे कौर देती है जिन्हें वह सहज में खा सके अथवा जैसे वायु के असीम होने पर भी चतुन मनुष्य पंखा तैयार करके उससे सिर्फ उतनी ही हवा करता है, जितनी वह स्वयं सहन कर सकता है, ठीक वैसे ही महर्षि व्यास ने भी वे समस्त बातें जो शब्दों के द्वारा बतलायी ही नहीं जा सकती थीं, अनुष्टुप् छन्द में ऐसे सुन्दर रूप में रख दी हैं कि स्त्रियों तथा शूद्रों इत्यादि की बुद्धि भी उन्हें ग्रहण कर सकती है। यदि मोतियों के निर्माण स्वाती के जल से नहीं होते तो वे रूपवती स्त्रियों के शरीर पर पहुँचकर सुशोभित ही कैसे होते? वाद्य-यन्त्र में यदि नाद ही न हो तो वह श्रवणेन्द्रियों को सुनायी कहाँ से पड़े? यदि वृक्ष में पुष्प ही उत्पन्न न हों तो उनकी सुगन्ध कैसे ली जाय? यदि मधुरता का वास पक्वान्न में ही न हो तो फिर वह जिह्वा को कहाँ से मिल सकती है? यदि दर्पण ही उपस्थित न हो तो नेत्र स्वयं को कैसे देख सकते हैं? गुरु की सत्कार मूर्ति यदि द्रष्टा को दृष्टिगत न हो तो वह सेवा किसकी करेगा? ठीक इसी प्रकार यदि उस असंख्यात ब्रह्म के लिये श्लोकों की सात सौ वाली संख्या का प्रयोग न किया गया होता तो उसका आकलन कौन कर सकता? मेघ समुद्र का जल निरन्तर सोखा करते हैं, पर जगत् को समुद्र अनवरत ज्यों-का-त्यों दृष्टिगोचर होता है, कारण कि जिसकी कोई माप ही नहीं है, उसमें अगर कुछ न्यूनता अथवा अधिकता हो तो किसी को उनका पता ही किस प्रकार चल सकता है? जिसका वर्णन वाणी के लिये साध्य नहीं है, वही यदि इन श्लोकों में समाया हुआ न होता तो मुख तथा श्रवणेन्द्रियों को उसका अनुभव किस प्रकार होता? इसीलिये महर्षि व्यास ने भगवान् के वचन को जो इस ग्रंथ में संकलित किया है, सो उन्होंने जगत् पर बड़ा भारी उपकार किया है और महर्षि व्यास के शब्दों पर पूरा-पूरा ध्यान रखकर उनके उसी ग्रन्थ को मैंने मराठी भाषा (ओबी नामक विशेष छन्द) में अनुवाद करके आप लोगों के श्रवणेन्द्रियों तक पहुँचाया है। |
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