श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
जिस विषय में व्यास इत्यादि महर्षियों का ज्ञान भी धोखा खा जाता है, उसी विषय में इस अल्पज्ञ व्यक्ति ने (मैंने) कोरी वाचालता की है; पर ये गीतेश्वर अत्यन्त भोले-भाले हैं। यदि उन्होंने व्यासोक्तिरूपी पुष्पों की माला धारण की है, तो मेरे सीधे-सादे दूर्वादलों के लिये भी वे ‘नहीं’ करते। क्षीर-सिन्धु के तट पर अपनी प्यास शान्त करने के लिये हाथियों के झुण्ड आते हैं; पर क्या इसीलिये मच्छरों को वहाँ आने की मनाही होती है? चिड़ियों के जिन बच्चों के पंख अभी निकले नहीं होते, वे आकाश में ठीक तरह उड़ तो नहीं सकते, पर फिर भी इधर-उधर फुदकते रहते हैं और उसी आकाश में गरुड़ भी तीव्र गति से उड़ा करता है। पृथ्वी पर राजहंस अत्यन्त सुन्दर गति से चला करते हैं पर क्या इसीलिये और कोई अपने बेढंगे चाल से उस पर चलने ही न पावे? अपनी माप के अनुसार घड़ा अत्यधिक जल अपने उदर में समेट लेता है; तो क्या इसीलिये चुल्लू में जल नहीं लिया जा सकता? दीपक अत्यन्त बड़ा होता है और यही कारण है कि उसका प्रकाश भी अत्यधिक होता है, पर छोटी बत्ती में भी उसके अंग के अनुरूप प्रकाश होता है अथवा नहीं? समुद्र में उसके विस्तार के अनुरूप ही आकाश प्रतिबिम्बित होता है; पर छोटे से गढ्डे में भी उसके अनुरूप आकाश का प्रतिबिम्ब पड़ता ही है। ठीक इसी प्रकार इस गीता के विषय में व्यास-सदृश दिव्य ऋषि विचरण करते हैं; पर सिर्फ इस दृष्टि से यह कहना उचित नही है कि उसमें मुझ-सदृश अल्पज्ञ को कदम नहीं रखना चाहिये। जिस सिन्धु में मन्दरगिरि की भाँति विशाल जल-जन्तु संचरण करते हैं, क्या छोटी मछलियों को उस सिन्धु की तरफ देखना भी नहीं चाहिये? अरुण निरन्तर सूर्य के रथ पर विराजमान रहता है और यही कारण है कि वह निरन्तर सूर्य को देखता भी रहता है; पर क्या पृथ्वी पर रेंगने वाले चींटी सूर्य की ओर नहीं देखती? इसीलिये यदि मुझ जैसे सरल स्वभाव के मनुष्य भी देशी भाषा में गीता का प्रणयन करें तो यह कोई अनुचित बात नहीं है। |
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