ज्ञानेश्वरी पृ. 830

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्षसंन्यास योग

अतएव अब मेरे समर्थन करने के लिये कोई विषय ही अवशिष्ट नहीं रह जाता। इस गीताशास्त्र को भगवान् श्रीकृष्ण की सुन्दर वाङ्मय मूर्ति ही समझना चाहिये। उदाहरण के लिये कोई भी शास्त्र लीजिये, वह सर्वप्रथम तो वाचक को अपना उद्दिष्ट अर्थ बतलाता है और तब स्वयं ही लुप्त हो जाता है; पर गीता के विषय में यह बात नहीं है, यह सम्पूर्ण परब्रह्म ही है। देखिये, समस्त विश्व पर कृपा करके तथा अर्जुन को निमित्त बनाकर भगवान् श्रीकृष्ण ने यह परम आत्मानन्द सबके लिये किस प्रकार सुगम कर दिया है! जैसे चक्रवाक को सुख पहुँचाने के व्याज से चन्द्रमा तीनों लोकों का दाह शमन करता है अथवा जैसे गौतम ऋषि के बहाने कालिकाल के कारण उत्पन्न होने वाला संसार का दाह शमन करने के लिये भगवान् शिव ने गंगा का प्रवाह धरती पर ला उपस्थित किया था, ठीक वैसे ही श्रीकृष्णरूपी गौ ने अर्जुन को बछड़ा बनाकर यह गीतारूपी दूध सम्पूर्ण जगत् के लिये दिया है। यदि आप इस शास्त्र में निमग्न हो जायँगे तो कैवल्यवाली स्थिति में पहुँच जायँगे। केवल इतना ही नहीं, अपितु एकमात्र पढ़ने के उद्देश्य से भी यदि जिह्वा के साथ इसका संयोग कराया जायगा तो जैसे पारस का जरा-सा स्पर्श होने से लोहा स्वतः सोना हो जाता है, ठीक वैसे ही यदि पाठ को कटोरा बनाकर किसी श्लोक का एक चरण भी आप अपने अधरों से स्पर्श करायेंगे तो आपके देह पर ब्रह्मैक्य की पुष्टता चढ़ेगी अथवा यदि उस कटोरे को मुँह न लगाकर उसे टेढ़ा-मेढ़ा करके रख देंगे तथा उसकी ओर से मुँह फेर लेंगे तो यदि गीता के अक्षर भी आपके श्रवणेन्द्रियों में पड़ जायँगे तो भी वह फल होगा। जैसे कोई ऐश्वर्यवान् तथा उदार व्यक्ति कभी किसी के द्वारा किसी चीज की याचना करने पर ‘ना’ नहीं कहता, ठीक वैसे ही यदि इस गीता का श्रवण, पठन अथवा अर्थ-ग्रहण में से किसी एक का भी अवलम्बन किया जाय तो वह मोक्ष से कम कभी किसी को कुछ देती ही नहीं।

इसलिये ज्ञान-प्राप्ति के निमित्त एकमात्र गीता की ही सेवा करनी चाहिये। अन्य अनेक शास्त्रों को लेने से क्या लाभ हो सकता है? भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन का जो संवाद हुआ था, उसे श्रीव्यासदेवजी ने हथेली में लेने योग्य बना दिया है अर्थात् जो चाहे वही उसका बड़ी ही सुगमता से आकलन कर सकता है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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