ज्ञानेश्वरी पृ. 810

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

जैसे आकाश में बसने, पृथ्वी पर बैठने अथवा सूर्य के प्रकाश में भ्रमण करने के लिये एकमात्र आकाश ही एक ऐसी जगह है जो सबके लिये समान रूप से खुला हुआ है और जिसमें किसी के लिये कोई प्रतिबन्ध नहीं है, ठीक वैसे ही यह गीताशास्त्र भी बिना किसी प्रतिबन्ध के सबके लिये सुलभ है। जो कोई व्यक्ति इसके सन्निकट पहुँचता है, उसे बिना अथवा अधम कहे यह अपना लेती है और बिना भेद-भाव किये समस्त लोगों को एक समान कैवल्य-सुख प्रदानकर समस्त संसार को शान्त करती है। ऐसा प्रतीत होता है कि अपनी पुरानी निन्दा से भयभीत होकर वेद गीता के पेट में प्रविष्ट हुआ है और यही कारण है कि अब उसकी कीर्ति विशुद्ध और उज्ज्वल हो गयी है।

इस प्रकार भगवान् ने अर्जुन को जिस गीता का उपदेश किया था, वह मानो वेद का ऐसा रूप है जिसका सेवन हर वर्ग के लोग कर सकते हैं, पर जैसे बछड़े के व्याज से गौ के स्तन में दूध उतरता है और तब वह दूध जन-जन को मिलता है, ठीक वैसे ही इस गीता ने भी पाण्डवों के व्याज से सम्पूर्ण जगत् का उद्धार कर दिया है। प्यास से व्याकुल चातक पर दया करके मेघ उसके लिये जल लेकर दौड़ पड़ता है, पर उस जल से चराचर जगत् का कल्याण होता है। जिस कमल को अन्य कोई आश्रय नहीं है, उस कमल के लिये सूर्य प्रतिदिन उदित होता है, पर उससे सारे जगत् की आँखों को सुख मिलता है। इसी प्रकार अर्जुन के व्याज से श्रीकृष्ण ने गीता को प्रकाशित किया है, पर इसी से सम्पूर्ण जगत् के सिर पर से संसार-सरीखा विशाल बोझ दूर हो गया है। ये लक्ष्मीपति नहीं हैं, अपितु इन्हें मुखरूपी आकाश से उदित होकर शास्त्रीय रहस्य के रत्नों की प्रभा से त्रिभुवन को प्रकाशित करने वाला सूर्य ही कहना चाहिये। वह कुल सचमुच परम पावन और धन्य है जिसमें जन्म लेने वाला अर्जुन इस गीतारूपी ज्ञान का पात्र हुआ तथा जिसने सारे संसार के लिये गीताशास्त्र का यह द्वार खोल दिया। अस्तु।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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