ज्ञानेश्वरी पृ. 811

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

तदनन्तर, भगवान् श्रीकृष्ण निज-स्वरूप में मिल जाने वाले अर्जुन को फिर द्वैतभाव में ले आये। वे कहने लगे कि हे पाण्डव! क्या यह शास्त्र तुम्हें रुचिकर जान पड़ा? यह सुनकर अर्जुन ने कहा कि हे देव आपकी कृपा से यह शास्त्र मुझे बहुत अच्छा लगा। फिर श्रीदेव कहने लगे-“हे धनंजय, गुप्त खजाना पाने के लिये भाग्य के अलौकिक बल की जरूरत होती है; पर भाग्य से जुटायी हुई सम्पत्ति का उचित उपभोग करने के लिये महद्भाग्य किसी विरले को ही मिलता है। बिना जमाये हुए विशुद्ध दुग्ध के क्षीरसागर-सरीखे पात्र का मंथन करने में कितना अधिक क्लेश हुआ होगा पर वह पूरा-का-पूरा श्रम भी अनन्तः सफल ही हुआ, कारण कि उसका मंथन करने वालों ने स्वयं अपने नेत्रों से देख लिया था कि उसमें से अमृत निकला है; पर अन्ततः उस अमृत का उचित सार-सँभाल उन लोगों से न हो सका। यही कारण है कि जो चीज अमरत्व प्राप्ति हेतु सम्पादित की गयी थी, वही मृत्यु का कारण बनी। सम्पत्ति का भोग किस प्रकार करना चाहिये यदि इस बात का ज्ञान प्राप्त किये बिना सम्पत्ति का संग्रह किया जाय तो इसी प्रकार अनर्थ होता है। राजा नहुष स्वर्ग के अधिपति तो हो गये थे, पर उनका आचरण ठीक नहीं हुआ और इसीलिये तुम यह बात जानते हो न कि उन्हें सर्प-योनि में जाना पड़ा था? हे धनंजय! तुम्हारे संग्रह में अनगिनत पुण्य थे, यही कारण है कि इस गीताशास्त्र के तुम एकमात्र अधिकारी हुए हो। पर अब तुम इस शास्त्रानुसार सम्यक् आचरण करो तथा अटल निष्ठा से इसका पालन करो; अन्यथा हे किरीटी, यदि तुम सम्प्रदाय का ठीक-ठीक ध्यान न रखोगे और सिर्फ इसके अनुष्ठान में लग जाओगे तो वही अमृतमंथनवाली दशा उस अनुष्ठान की भी होगी। हे अर्जुन, मान लो कि खूब स्वस्थ और उत्तम गौ प्राप्त हो गयी, किन्तु उसका दुग्ध हमें उसी दशा में प्राप्त हो सकेगा, जब हम उसके दुग्ध-दोहन की युक्ति अच्छी तरह जानते होंगे, ठीक इसी प्रकार मान लो कि गुरु प्रसन्न हो गये तथा शिष्य भी विद्यासम्पन्न हो गया; पर उस विद्या का ठीक-ठीक फल तभी उपलब्ध होता है, जब उस विद्या के सम्प्रदाय का उचित पालन किया जाता है। इसीलिये इस शास्त्र का जो उचित सम्प्रदाय है वह तुम अत्यन्त निष्ठापूर्वक श्रवण करो।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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