श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
अत: ऊर्ध्वमूलपर्यन्त इन चार अध्यायों में ज्ञानकाण्ड का ही वर्णन है। इसलिये यहाँ काण्डत्रय का विवेचन करने वाली श्रुति (ब्रह्मविद्या) यही गीता पद्यरूपी रत्नों को अलंकार धारणकर सुशोभित हुई है। अस्तु। तीन काण्डों वाली यह श्रुति जिस मोक्षफल की जोर-जोर से गर्जना करती है और जिसे निश्चितरूप से पाने के लिये वह कहती है। उस फल के साधन ज्ञान के साथ अहर्निष करने वाले जो अज्ञान के समुदाय हैं, उनका वर्णन सोलहवें अध्याय में किया गया है। सत्रहवें अध्याय में यह सन्देश है कि शास्त्रों के सहयोग से इन वैरियों पर विजय प्राप्त करनी चाहिये। इस प्रकार पहले अध्याय से लेकर सत्रहवें अध्याय की समाप्तिपर्यन्त श्रीकृष्ण ने वेदों के ही रहस्य का वर्णन किया है और इन सत्रहों अध्यायों के अर्थ का निचोड़ जिसमें दिया गया है, वह यह अठारहवाँ कलशाध्याय है। इस प्रकार सम्पूर्ण अध्यायों की संख्या को ध्यान में रखते हुए यह भगवद्गीता नामक ग्रन्थ अपने ज्ञान-दान की उदारता के कारण मानो मूर्तिमान् वेद ही है। निस्सन्देह वेद अपने स्थान पर ज्ञानरूपी सम्पत्ति से भरा हुआ है; किन्तु उसके सदृश दूसरा कृपण भी और कहीं न मिलेगा। इसका एकमात्र कारण यह है कि वह सिर्फ ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य-इन तीन जातियों के ही श्रवणेन्द्रियों तक पहुँच सकता है। इनके अलावा स्त्री तथा शूद्र इत्यादि जो अन्य मानवी जीव हैं, उन्हें वेद अपने ज्ञानरूपी मन्दिर में थोड़ी भी जगह नहीं देता। यही कारण है कि मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्वकाल के इस दोष को दूर करने के लिये ही वेद इस गीताशास्त्र का रूप ग्रहण करके समस्त लोगों के लिये साध्य हुआ है। इतना ही नहीं, अपितु वह गीता के स्वरूप में अर्थरूप से मन में प्रविष्ट करके श्रवण के द्वारा श्रवणेन्द्रियों से लगकर अथवा जप तथा पाठ के व्याज से मुख में रहकर अब समस्त लोगों को प्राप्त होता है। जिन लोगों को इस गीता का पाठ याद होता है, उन लोगों को तो वेद इस गीता के रूप में मोक्ष-सुख प्रदान करता ही है, पर उन लोगों के साथ-साथ जो लोग गीता को लिखकर और उसे पुस्तक के रूप में अपने पास रखते हैं, उन साधारण बुद्धि वालों के लिये भी वेद ने इस संसार के चतुष्पथ पर मोक्ष-सुख का मानो यह अन्न-सत्र ही खोल रखा है। |
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