श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
इसका पहला अध्याय तो एकमात्र शास्त्रीय विचार की आरम्भिक प्रस्तावना है। दूसरे अध्याय में सांख्यशास्त्र का सिद्धान्त स्पष्ट किया गया है। इस अध्याय में यह बतलाया गया है कि मोक्ष की प्राप्ति के लिये सांख्यशास्त्र ज्ञान के अलावा अन्य किसी चीज की अपेक्षा नहीं करता। तीसरे अध्याय में यह स्पष्ट किया गया है कि जो लोग अज्ञान से बँधे हुए हैं, उनके लिये मोक्ष पाने के साधन कौन-से हैं। वह साधन यह है कि जो काम्य तथा निषिद्ध कर्म व्यक्ति को देहाभिमान के बन्ध में बाँधते हैं, उन्हें छोड़कर व्यक्ति को अपने लिये सदा उपयुक्त नित्य तथा नैमित्तिक कर्मों को करना चाहिये। भगवान् ने तीसरे अध्याय में यही सिद्धान्त स्थिर किया है कि इस प्रकार निर्मल वृत्ति से कर्मों को करना चाहिये। इसी को कर्मकाण्ड समझना चाहिये। जिस समय बद्ध व्यक्ति के अन्तःकरण में यह विचार पैदा होता है कि यह नित्य-नैमित्तिक इत्यादि कर्माचरण अज्ञान का बन्धन किस प्रकार तोड़ता है, उस समय वह मुमुक्षु पद पर आ पहुँचता है और उस समय के लिये श्रीकृष्ण ने यह उपदेश दिया है कि व्यक्ति को अपने सारे कर्म ब्रह्मार्पण करते हुए करना चाहिये। भगवान् का उपदेश यह है कि तन, मन तथा वाणी के द्वारा जिन विहित कर्मों का जिस प्रकार आचरण हो, वे समस्त कर्म उसी रूप में ईश्वरार्पण किये जाने चाहिये। कर्मयोग के द्वारा सम्पन्न होने वाली ईश्वर-भक्ति के व्याख्यान का जो यह सुमधुर भोज्य पदार्थ चौथे अध्याय के अन्तिम भाग में परोसा गया है, वही “ईश्वर का भजन कर्मांचरण के द्वारा करना चाहिये” वाला तत्त्व निरन्तर विश्वरूप दर्शन वाले ग्यारहवें अध्याय के समाप्ति पर्यन्त प्रतिपादित किया गया है। अत: चौथे अध्याय से ग्यारहवें अध्यायपर्यन्त जो आठ अध्याय हैं, वही देवता (उपासना) काण्ड है। गीताशास्त्र ने समस्त प्रतिबन्धों को हटा करके इस विषय में ऊहापोह किया है और इस ईश्वर-भक्ति के कारण ईश्वर के प्रसाद से श्रीगुरु-सम्प्रदाय के अनुरूप जो सत्य तथा प्रेमपूर्ण ज्ञान मिलता है, उसके विषय में मैं यह समझता हूँ कि बारहवाँ अध्याय यह बतलाता है कि उसे अद्वेष्टा तथा अमानिता इत्यादि गुणों के सहयोग से बढ़ाना चाहिये। उस बारहवें अध्याय से पन्द्रहवें अध्यायपर्यन्त ज्ञान का परिपक्व फल ही निरूपण का विषय है। |
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