श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
जो ईश्वररूप सूर्य समस्त भूतों के अन्तःकरण में अथवा उनके हृदयरूपी महाकाश में चिद्वृत्तिरूपी सहस्रों रश्मियोंसहित उदित होता है, वह जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति-इन तीनों अवस्थारूपी तीनों लोकों को प्रकाशित करके माया के चक्कर में पड़े हुए यात्री जीवों को जाग्रत् करता है। दृश्य वस्तुरूपी जल के सरोवर में विषयरूपी कमलों पर अपना तेज फैलाकर वह ईश्वररूपी सूर्य पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा छठा मन मिलाकर कुल छः पैर वाले उस जीवरूपी भ्रमर को निरन्तर चलाता रहता है। पर यह रूपक बहुत हो चुका। वह हृदय में स्थित ईश्वर अहंकार का वेष्टन ओढ़कर अनवरत विलास करता रहता है। निज मायारूपी परदे की ओट से वह सम्पूर्ण सूत्रों का संचालन करता रहता है और बाहर जगत्-रूपी रंगभूमि पर चौरासी लाख स्थावर और जंगम योनियों के छायाचित्र नचाता रहता है। वह ब्रह्मा से लेकर कीटपर्यन्त समस्त भूतों को उनकी योग्यतानुसार देहाकृति से सजाकर रखता है। जिसके सम्मुख जो आकर वह सँवारकर रखता है, उस देह में वह जीव इसी भावना से आबद्ध हो जाता है कि यह देह ही मैं हूँ। जैसे एक सूत किसी अन्य सूत के साथ लिपटा हुआ रहता है अथवा किसी तृण इत्यादि का डंठल किसी अन्य डंठल के साथ लिपटा हुआ रहता है अथवा बच्चे जल में अपनी प्रतिच्छाया देखकर उसे अपना स्वरूप ही समझते हैं, ठीक वैसे ही देहाकार रूप में स्वयं की छाया देखकर जीव भी उसमें आत्मबुद्धि की स्थापना कर लेता है-यह समझने लगता है कि यह देह ही मैं हूँ। इस प्रकार देहरूपी यन्त्र पर जीवमात्र को बैठाकर यह हृदय में स्थित ईश्वर प्राचीन कर्मों के सूत्र हिलाता रहता है। उनमें से जो प्राचीन सूत्र जिस जीव के साथ स्वतन्त्र रीति से बँधे होते हैं, वे जीव उस सूत्र से मिलने वाली गति ग्रहण करने लगते हैं। |
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