श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्षसंन्यास योग
हे धनुर्धर! जैसे वायु तृणों को आकाश में घुमाती रहती है, ठीक वैसे ही ईश्वर भी जीवमात्र को स्वर्ग तथा संसार में सदा घुमाता रहता है। जैसे चुम्बक के आकर्षण से लोहा चक्कर खाने लगता है, वैसे ही जीवमात्र भी ईश्वर की सत्ता से चलते-फिरते रहते हैं। हे धनंजय! जैसे सिर्फ चन्द्रमा की सन्निकटता के ही कारण समुद्र इत्यादि अपनी-अपनी चेष्टा करते हैं यानी समुद्र में ज्वार-भाटा होता है, चन्द्रकान्तमणि पिघलने लगती है, कुमुद तथा चक्रवा की उदासीनता मिट जाती है तथा वे उल्लसित होते हैं, ठीक वैसे ही मूल प्रकृति के अनुरोध से एकमात्र ईश्वर ही सम्पूर्ण जीवों को भिन्न-भिन्न रीतियों से नचाता रहता है और वही ईश्वर, तुम्हारे हृदय-प्रान्त में भी रहता है। हे पाण्डुसुत! अर्जुनत्व को अपने अंग में चिपकने न देकर तुम्हारे चित्त में जो यह भाव उमड़ता है कि मैं हूँ, वहीं मैंपन यानी अहंवृत्ति उस ईश्वर का तात्विक स्वरूप है। अत: बात में जरा-सा भी सन्देह नहीं है कि वह ईश्वर की प्रकृति की सत्ता चलायेगा और यदि तुम्हारे चित्त में युद्ध करने का भाव न भी होता तो भी इसमें रत्तीभर भी सन्देह नही कि वह प्रकृति ही तुम्हें युद्ध में प्रवृत्त करेगी। इसीलिये यह भी कहा जाता है कि ईश्वर सबका स्वामी है तथा वह प्रकृति का नियमन करता है और तब वह प्रकृति अपनी इन्द्रियों को चलाती है। अत: तुम्हें युद्ध करना चाहिये अथवा नहीं, इस बात का विचार तुम प्रकृति पर ही छोड़ दो।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (1299-1318)
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