ज्ञानेश्वरी पृ. 798

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्षसंन्यास योग

हे धनुर्धर! जैसे वायु तृणों को आकाश में घुमाती रहती है, ठीक वैसे ही ईश्वर भी जीवमात्र को स्वर्ग तथा संसार में सदा घुमाता रहता है। जैसे चुम्बक के आकर्षण से लोहा चक्कर खाने लगता है, वैसे ही जीवमात्र भी ईश्वर की सत्ता से चलते-फिरते रहते हैं। हे धनंजय! जैसे सिर्फ चन्द्रमा की सन्निकटता के ही कारण समुद्र इत्यादि अपनी-अपनी चेष्टा करते हैं यानी समुद्र में ज्वार-भाटा होता है, चन्द्रकान्तमणि पिघलने लगती है, कुमुद तथा चक्रवा की उदासीनता मिट जाती है तथा वे उल्लसित होते हैं, ठीक वैसे ही मूल प्रकृति के अनुरोध से एकमात्र ईश्वर ही सम्पूर्ण जीवों को भिन्न-भिन्न रीतियों से नचाता रहता है और वही ईश्वर, तुम्हारे हृदय-प्रान्त में भी रहता है। हे पाण्डुसुत! अर्जुनत्व को अपने अंग में चिपकने न देकर तुम्हारे चित्त में जो यह भाव उमड़ता है कि मैं हूँ, वहीं मैंपन यानी अहंवृत्ति उस ईश्वर का तात्विक स्वरूप है। अत: बात में जरा-सा भी सन्देह नहीं है कि वह ईश्वर की प्रकृति की सत्ता चलायेगा और यदि तुम्हारे चित्त में युद्ध करने का भाव न भी होता तो भी इसमें रत्तीभर भी सन्देह नही कि वह प्रकृति ही तुम्हें युद्ध में प्रवृत्त करेगी। इसीलिये यह भी कहा जाता है कि ईश्वर सबका स्वामी है तथा वह प्रकृति का नियमन करता है और तब वह प्रकृति अपनी इन्द्रियों को चलाती है। अत: तुम्हें युद्ध करना चाहिये अथवा नहीं, इस बात का विचार तुम प्रकृति पर ही छोड़ दो।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (1299-1318)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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