ज्ञानेश्वरी पृ. 796

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


स्वभावजेन कौन्तेय निबद्ध: स्वेन कर्मणा ।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत् ॥60॥

यदि जल का प्रवाह पूर्व दिशा की ओर हो तथा पश्चिम दिशा की ओर तैरकर जाने की कोशिश की जाय तो तैरने वाले के हिस्से में एकमात्र पागलपन वाला आग्रह ही पड़ेगा। इस प्रकार के मनुष्य को जल का प्रवाह स्वयं ही तैरने वाले के इच्छा के विरुद्ध तथा अपनी इच्छानुसार बहा ले चलेगा, अथवा यदि धान्य-कण यह कहे कि मैं धान की भाँति अंकुरित नहीं होऊँगा और न मैं उसकी तरह बढूँगा, तो भला तुम्हीं बतलाओ कि क्या वह कभी अपने स्वभाव का अतिक्रमण कर सकेगा? ठीक इसी प्रकार हे सुविज्ञ! तुम्हारा स्वभाव तथा तुम्हारी प्रकति-इन दोनों का निर्माण ही क्षात्रधर्म के संस्कारों से हुआ है। इसीलिये यद्यपि इस समय तुम यह कह रहे हो कि मैं युद्ध नहीं करूँगा तो भी कोई सन्देह नहीं कि तुम्हारी प्रकृति ही तुम्हें युद्ध में प्रवृत्त कर देगी।

हे पाण्डुसुत! तुम्हारी प्रकृति ने ही तुम्हें सौर, तेज तथा तत्परता इत्यादि गुण प्रदान कर दिये हैं और यदि तुम उन गुणों के अनुरूप कार्य न करोगे तो तुम्हारी वह प्रकृति ही तुम्हें चैन नहीं लेने देगी। अत: हे धनुर्धर! तुम इन गुणों से बँधे हुए हो और यही कारण है कि तुम क्षात्र-कर्म के मार्ग में निःसन्देह रूप से प्रवृत्त होओगे; पर यदि तुम अपने जीवन का यह रहस्य अपने ध्यान में न रखकर सिर्फ यह निश्चय करके बैठे रहोगे कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, तो भी मुझे इस बात का पूरा-पूरा भरोसा है कि तुम भी वैसे ही कुछ-न-कुछ अवश्य करोगे, जैसे वह व्यक्ति स्वयं न चलने पर भी अपनी जगह से सुदूर चला जाता है, जिसे हाथ-पैर बाँधकर रथ में बैठा दिया जाता है। तुम अपने मन में यह सोचते ही रह जाओगे कि मैं कुछ भी न करूँगा और तुम्हारी प्रकृति बलात् तुमसे बहुत कुछ करा डालेगी। जिस समय विराट देश का राजकुमार उत्तर युद्धभूमि से पलायन कर रहा था, उस समय तुम्हारे क्षात्र स्वभाव ने ही तुम्हें युद्ध में प्रवृत्त किया था अथवा नहीं? आज भी तुम्हारा वही क्षात्र स्वभाव तुम्हें युद्ध में प्रवृत्त करेगा। बड़े-बड़े योद्धाओं की ग्यारह अक्षौहिणी सेनाओं को तुमने उत्तर के गो-ग्रहण के समय अकेले ही युद्धभूमि में धूल चटा दिया था। हे कोदंडपाणि! इस समय भी वही क्षात्रस्वभाव तुम्हें युद्धभूमि में प्रवृत्त करेगा। क्या व्याधिग्रस्त व्यक्ति को कभी व्याधि रुचिकर लगती है? क्या दरिद्र व्यक्ति को कभी दरिद्रता अच्छी लगती है? नहीं। पर जिस बलिष्ठ दैव के (प्रारब्ध के) वशीभूत होने के कारण व्याधिग्रस्त व्यक्ति को व्याधि अथवा दरिद्र व्यक्ति को दरिद्रता झेलनी पड़ती है, वही दैव (प्रारब्ध), ईश्वर की सत्ता बिना अपना कार्य किये न रहेगा तथा वह ईश्वरीय सत्ता भी तुम्हारे हृदय में विराज ही रही है।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (1286-1298)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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