ज्ञानेश्वरी पृ. 79

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-3
कर्मयोग

हे पार्थ! अब मैं इसी विषय से सम्बन्धित एक कथा तुम्हें सुनाता हूँ। जब ब्रह्मा ने समस्त सृष्टि की रचना की थी,[1]


सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति: ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्तिष्टकामधुक् ॥10॥

तब उन्होंने सम्पूर्ण प्राणियों के साथ ही नित्य यज्ञ भी उत्पन्न किया। परन्तु नित्याचार का धर्म गूढ़ होने के कारण वह नासमझ प्राणियों की समझ में नहीं आता था। उस समय सब लोगों ने मिलकर ब्रह्मदेव से विनती की कि हे देव! हमारे लिये वह कौन-सा ऐसा आधार है, जिससे सब काम अच्छी तरह से सम्पन्न हो? उस समय कमलजन्मा ब्रह्मा ने प्राणियों से कहा कि तुम्हारी वर्ण व्यवस्था के अनुसार स्वधर्म की रचना की गयी है, तुम लोग इसी की उपासना (आचरण) करो, तो तुम्हारी सभी मनोकामनाएँ अपने-आप पूरी होती रहेंगी। तुम लोगों को व्रतादि के चक्कर में पड़ने की जरूरत नहीं है; तपश्चर्या करके शरीर को सुखाने की भी जरूरत नहीं है और दूरवर्ती तीर्थाटन की भी आवश्यकता नहीं है। योगादिक साधन, सकाम अनुष्ठान एवं तान्त्रिक प्रयोग में मत पड़ना; नाना प्रकार के देवताओं को भजन-पूजन मत करो। एकमात्र स्वधर्म का पालन करो और उनके कारण अपने-आप सम्पन्न होने वाले यज्ञों को करते चलो। तुम अपने अन्तःकरण में स्वार्थ को फटकने मत दो और केवल स्वधर्म का अनुष्ठान करो। जैसे पतिव्रता अपनी पति की आराधना करती है, ठीक वैसे ही स्वधर्मरूपी यज्ञ की आराधना करना ही तुम लोगों का एकमात्र कर्तव्य है। सत्यलोकाधिपति ब्रह्मा ने यह भी कहा कि हे प्रजागण! यदि तुम लोग भक्ति-भाव से इस स्वधर्म की उपासना करोगे तो यह कामधेनु की भाँति तुम्हारी समस्त मनोकामनाएँ न केवल पूरी करेगा, अपितु यह कभी भी तुम लोगों को निराधार नहीं छोड़ेगा।[2]


देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व: ।
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ ॥11॥

जब तुम इस स्वधर्मरूपी यज्ञ से सारे देवताओं को सन्तुष्ट कर लोगे, तब वे तुम्हें समस्त अभीष्ट वस्तुएँ प्रदान करेंगे। जब इस स्वधर्माचरणरूपी पूजा से तुम देवताओं का पूजन करोगे, तब समस्त देवता तुम्हारे योगक्षेम का वहन भी करेंगे, तुम्हें किसी कमी का एहसास भी नहीं होने देंगे। जब तुम देवताओं का भजन-पूजन करोगे तब वे देवता तुम पर प्रसन्न होंगे और इस प्रकार परस्पर प्रेमभाव उत्पन्न होगा। फिर तुम जो कुछ करना चाहोगे वह अपने-आप होता चला जायगा। इतना ही नहीं तुम्हारी समस्त मनोकामनाएँ भी पूरी हो जायँगी और तुम्हें वाक्-सिद्धि प्राप्त हो जायगी। तुम्हारे अन्दर आज्ञापक की सामर्थ्य आ जायगी और समस्त सिद्धियाँ तुम्हारी आज्ञा की वशवर्तिनी बनी रहेंगी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (81-85)
  2. (86-94)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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