श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-3
कर्मयोग
जैसे वन-शोभा फलभार का सौन्दर्य धारण करेक सदा ऋतुराज वसन्त के द्वार पर उपस्थित रहती है,[1]-
ठीक वैसे ही मूर्तिमन्त दैव समस्त सुख-सुविधाओं को लेकर तुम्हारी खोज करता हुआ तुम्हारे पास स्वयं ही चला आवेगा। इस प्रकार जब तुम्हारी एकमात्र निष्ठा स्वधर्माचरण पर होगी तब तुम सब प्रकार से सुखी हो जाओगे। परन्तु समस्त सम्पदाएँ मिल जाने पर जो विषय-रस के लोभ में पड़कर इन्द्रियाधीन हो जायगा, स्वधर्माचरणरूपी यज्ञ से सन्तुष्ट किये हुए देवताओं की भरपूर सम्पत्ति का जो सदुपयोग नहीं करेगा और सर्वेश्वर का भजन नहीं करेगा, जो अग्निहोत्र नहीं करेगा, देवपूजन नहीं करेगा, यथासमय ब्राह्मणों को भोजन नहीं करायेगा, जो गुरुभक्ति से विमुख रहेगा, आतिथ्य-सत्कार नहीं करेगा, अपनी जाति और गोत्रजों को सन्तुष्ट नहीं करेगा, जो स्वधर्माचरण से विमुख होगा और प्राप्त सम्पत्ति के कारण अभिमानी बनकर एकमात्र सुख-उपभोग के ही चक्कर में पड़ा रहेगा, उसका बहुत बड़ा घात होगा, जिससे हाथ में आया हुआ ऐश्वर्य चला जायगा और जो सुख-सामग्री उसे प्राप्त हुई रहेगी उससे भी वह वंचित हो जायगा। जैसे आयु के क्षीण होने पर शरीर से चेतना जाती रहती है अथवा भाग्यहीन के घर में लक्ष्मी नहीं रहती, ठीक वैसे ही यदि स्वधर्माचरण ही लुप्त हो जाय तो जान लेना चाहिये कि सब सुखों का आश्रय ही टूट गया। जैसे दीपक के बुझने के साथ-ही-साथ उसका प्रकाश भी नष्ट हो जाता है वैसे ही जहाँ स्वधर्म का नाश हुआ, समझ लो वहाँ से स्वतन्त्रता भी चल दी। ब्रह्मा ने यह भी कहा था-इसलिये हे प्रजागण! जो स्वधर्म छोड़ देगा, उसे काल दण्ड देगा और-तो-और उसे चोर ठहराकर उसका सब कुछ छीन लेगा। फिर सब-के-सब दोष चारों आरे से आकर उसी को घेर लेंगे; जैसे रात के समय भूत-प्रेत आदि श्मशान को व्याप्त करते हैं, वैसे ही त्रिभुवन के सारे दुःख, नाना प्रकार के पातक और दीनताएँ आकर उस व्यक्ति में निवास करने लगेंगी। जो व्यक्ति वैभव के मद से उन्मत्त हो जाता है, उसकी दशा ऐसी ही हो जाती है और फिर चाहे वह कितना ही विलाप करे पर कल्प के अन्त तक उसका छुटकारा नहीं होता। इसलिये तुम लोग न कभी स्वधर्म का परित्याग करो और न इन्द्रियों को ही भटकने दो। ब्रह्मा ने मानवी जीवों को बस यही उपदेश दिया था। ब्रह्मा ने यह भी कहा था कि जल में रहने वाला प्राणी जिस क्षण जल के बाहर निकले उस क्षण ही जान लेना चाहिये कि अब उसकी मृत्यु आ गयी है। इसी प्रकार किसी भी मनुष्य को कभी भी स्वधर्म का त्याग नहीं करना चाहिये; अन्यथा सब कुछ नष्ट हो जायगा। इसीलिये मैं बार-बार कहता हूँ कि तुम सब लोग अपने-अपने उचित कर्मों के सम्पादन में ही नित्य-निरन्तर लगे रहो।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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