श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-3
कर्मयोग
कर्मों को छोड़कर अर्थात् विहित कर्मों को छोड़कर कर्मातीत होना देहधारी के लिये असंभव है, ऐसा ही है तो शास्त्रनिषिद्ध कर्मों का क्यों आचरण करें? अब तुम स्वयं ही इस बात को तय कर लो कि निषिद्ध एवं विहित-इन दो कर्मों में से कौन-सा कर्म करना चाहिये। इसीलिये जितने भी विहित कर्म सामने आ पड़ें, उन सारे कर्मों को निष्काम मन से करने चाहिये। हे पार्थ! एक और कुतूहलभरी बात है जो तुम नहीं जानते। वह यह है कि इस प्रकार अहंकाररहित और निष्काम बुद्धि से किये हुए विहित और नित्यनैमित्तिक कर्म मनुष्य को अपने-आप (सहज) मुक्त करते हैं। देखो, जो मनुष्य शास्त्रानुसार स्वधर्म का आचरण करता है, निःसन्देह वह उन्हीं आचरणों की सहायकता से मोक्ष भी प्राप्त कर लेता है।
हे अर्जुन! तुम्हें स्वधर्म को ही ‘नित्य यज्ञ’ समझना चाहिये। उसका पालन करने में नाममात्र भी पाप का संचार नहीं होता। जब यह स्वधर्म छूट जाता है और मन में बुरी प्रवृत्ति उत्पन्न होती है, अर्थात् बुरे कर्मों में आसक्ति होती है। तब बुरे कर्म करने वाला व्यक्ति संसार-बन्धन में बँधता है। इसीलिये जो व्यक्ति निरन्तर स्वधर्मानुसार कर्मों का आचरण करता है, उसके द्वारा उन कर्मों के आरचण में ही अनवरत यज्ञकर्म होते रहते हैं। इसीलिये ऐसे कर्म करने वाले व्यक्तियों को संसार के बन्धन बाँध ही नहीं सकते। यह सारा संसार माया के मोहपाश में जकड़ा हुआ है और उससे स्वधर्माचरणरूपी नित्य यज्ञ नहीं होता; और इसीलिये वह कर्म के बन्धनों में बँधा हुआ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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