ज्ञानेश्वरी पृ. 78

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-3
कर्मयोग


नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण: ।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मण: ॥8॥

कर्मों को छोड़कर अर्थात् विहित कर्मों को छोड़कर कर्मातीत होना देहधारी के लिये असंभव है, ऐसा ही है तो शास्त्रनिषिद्ध कर्मों का क्यों आचरण करें? अब तुम स्वयं ही इस बात को तय कर लो कि निषिद्ध एवं विहित-इन दो कर्मों में से कौन-सा कर्म करना चाहिये। इसीलिये जितने भी विहित कर्म सामने आ पड़ें, उन सारे कर्मों को निष्काम मन से करने चाहिये। हे पार्थ! एक और कुतूहलभरी बात है जो तुम नहीं जानते। वह यह है कि इस प्रकार अहंकाररहित और निष्काम बुद्धि से किये हुए विहित और नित्यनैमित्तिक कर्म मनुष्य को अपने-आप (सहज) मुक्त करते हैं। देखो, जो मनुष्य शास्त्रानुसार स्वधर्म का आचरण करता है, निःसन्देह वह उन्हीं आचरणों की सहायकता से मोक्ष भी प्राप्त कर लेता है।


यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन: ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंग्ङ: समाचर ॥9॥

हे अर्जुन! तुम्हें स्वधर्म को ही ‘नित्य यज्ञ’ समझना चाहिये। उसका पालन करने में नाममात्र भी पाप का संचार नहीं होता। जब यह स्वधर्म छूट जाता है और मन में बुरी प्रवृत्ति उत्पन्न होती है, अर्थात् बुरे कर्मों में आसक्ति होती है। तब बुरे कर्म करने वाला व्यक्ति संसार-बन्धन में बँधता है। इसीलिये जो व्यक्ति निरन्तर स्वधर्मानुसार कर्मों का आचरण करता है, उसके द्वारा उन कर्मों के आरचण में ही अनवरत यज्ञकर्म होते रहते हैं। इसीलिये ऐसे कर्म करने वाले व्यक्तियों को संसार के बन्धन बाँध ही नहीं सकते। यह सारा संसार माया के मोहपाश में जकड़ा हुआ है और उससे स्वधर्माचरणरूपी नित्य यज्ञ नहीं होता; और इसीलिये वह कर्म के बन्धनों में बँधा हुआ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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