ज्ञानेश्वरी पृ. 752

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मन: ।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ॥39॥

अपेय वस्तुओं को पीने से, अखाद्य सामग्रियों का सेवन करने से, व्यभिचारिणी स्त्रियों की संगत करने से जो सुख मिलता है अथवा दूसरों का घात करके, दूसरों का द्रव्य अपहृत करके और भाटों के मुख से कृति गान सुनकर जो सुख मिलता है, आलस्य से जिस सुख का पोषण होता है, जो सुख निद्रा में दिखलायी पड़ता है और जिस सुख के आरम्भ तथा अन्त में जीव को अपने सन्मार्ग के विषय में भ्रम हो जाता है तथा वह अनुचित मार्ग में लग जाता है, हे पार्थ! वही सुख पूर्णरूप से तामस कहलाता है; परन्तु मैं इस विषय का विशेष विस्तार नहीं करता, कारण कि इसकी कहानी एकदम निन्द्य है। इस प्रकार जो सुख का मूल कारण कर्मफल है, वह भी कर्मभेद के अनुसार तीन प्रकार का हो गया है और उसका वर्णन मैंने तुम्हारे समक्ष शास्त्रीय ढंग से कर दिया है। अब इस जगत में छोटी-बड़ी समस्त चीजों में कर्ता, कर्म और कर्मफल की त्रिपुटी के अलावा और कुछ भी नहीं है। हे किरीटी! इस त्रिपुटी में तीनों गुण ठीक उसी प्रकार ओत-प्रोत रहते हैं, जिस प्रकार वस्त्र में तन्तु बुने होते हैं।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (806-812)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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