ज्ञानेश्वरी पृ. 753

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुन: ।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभि: स्यात्त्रिभिर्गुणै: ॥40॥

इसीलिये स्वर्गलोक में भी तथा मृत्युलोक में भी ऐसी कोई चीज नहीं है जो माया के क्षेत्र में होने पर भी इन सत्त्वादि गुणों से युक्त न हो। क्या कभी ऊन के बिना कम्बल, मिट्टी के बिना ढेला और जल के बिना तरंग भी उत्पन्न हो सकती है? ठीक इसी प्रकार प्राणियों का ऐसा स्वरूप ही नहीं है कि गुणों के बिना इस सृष्टि की रचना हो सके। अत: तुम यह बात अच्छी तरह से समझ लो कि ये सम्पूर्ण सृष्टि इन त्रिगुणों से ही बनी हुई है। इन्ही गुणों ने देवताओं में ब्रह्मा, विष्णु और महेश ये त्रिवर्ग किये हैं और इन्हीं ने स्वर्ग, मर्त्य और नरक-इन त्रिलोकों का निर्माण किया है। इन्हीं गुणों ने चारों वर्णों के पीछे भिन्न-भिन्न कर्मों का झमेला खड़ा कर दिया है।[1]


ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप ।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणै: ॥41॥

अब यदि तुम यह पूछो कि ये चारों वर्ण कौन-से हैं तो मैं तुम्हें बतलाता हूँ; ध्यानपूर्वक सुनो। इस वर्णों में ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ हैं। इनके बाद जो क्षत्रिय तथा वैश्य हैं, उन्हें भी महत्त्व की दृष्टि से ब्राह्मणों के समकक्ष ही जानना चाहिये, कारण कि उन्हें भी वैदिक धर्म-कृत्यों का अधिकार प्राप्त है। हे धनंजय! चौथा जो शूद्र वर्ण है उन्हें वेदों का अधिकार नहीं है और यही कारण है कि इनका जीवन उपर्युक्त तीनों वर्णों पर निर्भर है; पर इन शूद्रों की जीवनवृत्ति की ब्राह्मण इत्यादि तीनों वर्णों के साथ अत्यन्त ही सन्निकटता रहती है और इसीलिये इनका भी वर्णों की पंक्ति में चौथा स्थान है। जैसे पुष्पों के साथ-साथ श्रीमन्त लोग उस डोरे को भी अपने गलें में धारण करते हैं, जिसमें वे पुष्प पिरोये हुए होते हैं, ठीक वैसे ही त्रैवर्णिक द्विजों के साथ शूद्रों का भी व्यवहार-सम्बन्ध होने के कारण श्रुतियों के लिये वर्ण संस्था में शूद्रों का भी सवावेश करना अत्यावश्यक हुआ है, हे किरीटी! यही चातुर्वर्ण्य की संस्था का स्वरूप है।

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (813-817)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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