ज्ञानेश्वरी पृ. 751

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


विषयेन्द्रिसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥38॥

हे धनंजय! विषयों और इन्द्रियों का मिलन होते ही जिस सुख की धारा अपने दोनों तटों को डुबाकर चतुर्दिक् प्रवाहित होने लगती है, उसी सुख को राजसी कहते हैं। किसी बड़े अधिकारी के अपने नगर में प्रवेश करने पर लोग जिस प्रकार का उत्सव करते हैं अथवा कर्ज लेकर जिस प्रकार बहुत तड़क-भड़क से विवाह किया जाता है, रुग्ण व्यक्ति को जिस प्रकार शक्कर और केला वर्जित होने पर भी बहुत रुचिकर लगता है अथवा बछनाग जिस प्रकार विषैला होने पर भी पहले-पहल खाने में मधुर जान पड़ता है, जिस प्रकार आरम्भ में चोरों के संग मैत्री-सम्बन्ध, बाजारू औरत का व्यवहार अथवा बहुरुपिये का विनोद बड़ा रुचिकर लगता है, पर अन्त में जिस प्रकार ये सभी चीजें दुःखदायक सिद्ध होती हैं, ठीक उसी प्रकार विषयों तथा इन्द्रियों के मिलन से जो सुख पहले तो जीव को प्रसन्न करता है, पर बाद में जो जीव के सुख की सारी दौलत ठीक उसी प्रकार अपहृत कर लेता है, जिस प्रकार हंस चट्टान पर गिर जाने पर अपने जान से हाथ धो बैठता है[1] और जिस सुख के कारण अन्ततः व्यक्ति के प्राणों का भी नाश होता है और उसके पास की पुण्यरूपी पूँजी भी नष्ट हो जाती है और तब वे समस्त सुख स्वप्नवत् विनष्ट हो जाते हैं, जिन्हें वह प्रारम्भ से ही भोगता आया था और तब उसे अपना सर्वस्व गँवाकर एकमात्र कष्ट ही झेलने पड़ते हैं।

आशय यह कि इस प्रकार का जो सुख अन्त में इस लोक में भी व्यक्ति पर विपत्ति लाता है तथा दूसरे लोक यानी परलोक में भी जो विषतुल्य सिद्ध होता है, वह सुख राजसी होता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि जहाँ एकमात्र इन्द्रियों का पालन-पोषण करके तथा धर्मक्षेत्र का नाश करके सिर्फ विषयों का सुख भोगा जाता है, वहाँ पातक अत्यन्त बलवान् हो जाते हैं और फिर वही पातक जीव की दुर्दशा कराते हैं। इस प्रकार जिस सुख से परलोक में इतनी हानि उठानी पड़ती है और जो उसी विष की तरह होता है, जो माहुर (मधुर) कहलाने पर भी अन्त में प्राणों का नाश करके विष ही सिद्ध होता है और इस प्रकार जो सुख शुरू में तो मधुर जान पड़ता है, पर अन्ततः अत्यन्त कटु सिद्ध होता है, हे पार्थ, उस सुख के विषय में यह अच्छी तरह से जान लेना चाहिये कि वह रजोगुण ही बना हुआ है और इसीलिये उस सुख को कभी भी हाथ नहीं लगाना चाहिये।[2]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. हंस रात्रि में उड़ते समय जल में तारों के प्रतिबिम्ब को देखकर उसे रत्न समझकर लेने के लिये झपटता है और चट्टान से टकराकर मर जाता है।
  2. (794-805)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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