श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
अब वही ज्ञेय इत्यादि ज्ञाता को प्रिय जान पड़े तो फिर उसका उपभोग करने में उससे पलभर का भी विलम्ब नहीं सहा जाता। इसके विपरीत यदि वह ज्ञेय ज्ञाता को अप्रिय जान पड़ता है तो उसका तिरस्कार करके उसे भगाने में भी जो थोड़ा-सा समय लगता है, वह भी उसे युग के समान प्रतीत होता है। सर्प तथा रत्नों के हार के घेरे में जो व्यक्ति एकदम से पहुँच जाता है, उसे जैसे भय तथा आनन्द दोनों ही एक साथ जान पड़ते हैं, ठीक वैसी ही अवस्था उस समय ज्ञाता की भी होती है, जिस समय कुछ प्रिय-अप्रिय वस्तु दृष्टिगत होती है और तब वह प्रिय वस्तु को स्वीकार तथा अप्रिय वस्तु को त्याग करने की चेष्टा करने लगता है। विरोधी दल के मल्लों में अपने टक्कर का मल्ल देखकर जैसे किसी सेनापति का उसके साथ दो-दो हाथ करने को जी चाहता है और वह स्वयं ही अपने रथ पर से नीचे उतर कर उससे लड़ने के लिये उसकी ओर पैदल ही चल पड़ता है, ठीक वैसे ही जो अब तक अपने ज्ञातृत्व के कारण् एकमात्र ज्ञाता ही था, वह अब कार्यारम्भ करके कर्ता की स्थिति अथवा पद को प्राप्त होता है। जैसे कोई भोजन ग्रहण करने वाला ही भोजन बनाने के लिये बैठ जाय अथवा मधुप ही उद्यान लगाने लग जाय अथवा स्वर्ण की परख करने वाला ही स्वयं कसौटी का पत्थर बन जाय अथवा स्वयं देवता ही अपने लिये मन्दिर का निर्माण करने लगें, ठीक वैसे ही हे पाण्डव! ज्ञेय विषय के स्वीकार अथवा त्याग के लिये ज्ञाता अपनी इन्द्रियों को काम में प्रवृत्त करता है और उस समय ज्ञाता ही कर्ता बन जाता है। जब इस प्रकार ज्ञाता ही स्वयं कर्ता हो जाता है, उस समय वह ज्ञान को साधन बनाता है तथा उससे ‘ज्ञेय’ स्वतः ‘कार्य’ हो जाता है। इस प्रकार हे सुविज्ञ! यह परिवर्तन ज्ञान की करनी से हो जाता है। रात जैसे आँखों की शोभा बदल देती है अथवा जैसे भाग्य के प्रतिकूल हो जाने पर ऐश्वर्यसम्पन्न व्यक्ति का समस्त धन समाप्त हो जाता है; पूर्णिमा के बाद जैसे चन्द्रबिम्ब में भी बदलाव आने लगता है और वह निरन्तर घटने लगता है, वैसे ही इन्द्रियों की गति के योग से ज्ञाता के चतुर्दिक कर्तत्त्व का पेंच बैठने लगता है। अब उस दशा में उसमें जो-जो लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं, वह भी मन लगाकर सुनो। |
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