ज्ञानेश्वरी पृ. 724

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये पाँच प्रकार के लक्षण ज्ञेय के हैं। जैसे एक ही आम अपने गन्ध, रंग और रस इत्यादि के द्वारा भिन्न-भिन्न इन्द्रियों को स्पर्श करके अपना भास कराता है, वैसे ही ज्ञेय भी होता तो एक ही है पर ज्ञान इन्द्रियों के मार्ग से उस ज्ञेय का ग्रहण करता है और इसीलिये वह ज्ञेय पाँच प्रकार का होता है। जैसे जलप्रवाह अन्ततः समुद्र में घुसते ही समाप्त हो जाता है अथवा अनाज के पौधों की बाढ़ उनमें बालें लगते ही समाप्त हो जाती हैं, वैसे ही इन्द्रियों के प्रवाह के साथ-साथ दौड़ लगाने वाले ज्ञान का जिसमें अवसान होता है, हे किरीटी! उसी को ज्ञेय अर्थात् ज्ञान का विषय कहते हैं।

हे धनंजय! इस प्रकार ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय के बारे में मैंने तुम्हें बतला दिया है। समस्त क्रियाओं की उत्पत्ति इन्हीं तीनों से होती है। जो शब्द इत्यादि विषय हैं, वे तो इन्हीं पाँच प्रकारों के हैं; पर जो ज्ञेय है, वह या तो प्रिय होता है अथवा अप्रिय। हे धनंजय! ज्ञेय ज्यों ही जरा-सा भी ज्ञान सम्मुख लाकर खड़ा करता है, त्यों ही ज्ञाता उस विषय को या तो स्वीकार अथवा त्याग करना शुरू कर देता है। जैसे किसी मत्स्य को देखते ही बगला अथवा द्रव्य को देखकर रंक अथवा किसी स्त्री को देखते ही कामी व्यक्ति विचलित हो जाता है और उसे पाने की लालसा करता है अथवा जैसे ढाल की तरफ जल या फूलों की सुगन्ध की ओर भ्रमर अथवा सन्ध्याकाल को दुग्ध-दोहन के समय बछड़ा गौ की तरफ दौड़ पड़ता है अथवा स्वर्ग की उर्वशी इत्यादि अप्सराओं की सुख-भोग की मनोहर बातें सुनकर जैसे लोग स्वर्गसुख पाने के लिये आकाश में यज्ञरूपी सीढ़ियाँ लगाने लगते हैं अथवा हे किरीटी! आकाश में उड़ने वाला कबूतर जैसे कबूतरी को देखते ही लोट-पोट होकर जमीन पर गिरने लगता है अथवा मेघों की गर्जना सुनते ही जैसे मोर आकाश की ओर दृष्टिपात करने लगता है, ठीक वैसे ही ज्ञेय को देखते ही ज्ञाता भी उसकी ओर तत्काल दौड़ पड़ता है। अत: हे पाण्डुनन्दन! ज्ञान ज्ञेय और ज्ञाता-इन तीनों से ही समस्त कर्मों का आरम्भ होता है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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