श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
बात यह है कि मुक्तों के लक्षणों के सम्बन्ध में विचार करते-करते ही व्यक्ति को मोक्ष की उपलब्धि सहज में हो जाती है। जैसे हमारी खोयी हुई वस्तु दीपक के प्रकाश में खोजने पर आसानी से प्राप्त हो जाती है अथवा दर्पण ज्यों-ज्यों साफ किया जाय, त्यों-त्यों उसमें हमारा रूप और भी अधिक स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है अथवा जल का मिलन होते ही जैसे लवण भी जल का ही रूप धारण कर लेता है अथवा प्रतिबिम्ब यदि पीछे मुड़कर फिर अपने बिम्ब को देखने के लिये आवे तो वह जैसे आप-से-आप बिम्ब ही हो जाता है, ठीक वैसे ही सन्तों की बातों का विचार करते-करते हमें अपना खोया हुआ आत्मस्वरूप फिर से मिल जाता है। इसीलिये सदा सन्तों की बातों का वर्णन और श्रवण करना चाहिये। जैसे चर्मचक्षुओ में विद्यमान दृष्टि चक्षुओं के चमड़े से नहीं बँधती, ठीक वैसे ही जो कर्म करने पर भी कर्म की समता तथा विषमता अथवा सुख-दुःख से बाँधा नहीं जाता और इस प्रकार जो बन्धन-मुक्त हो जाता है, अब मैं उसी के लक्षणों के बारे में बतलाता हूँ।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (377-402)
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