ज्ञानेश्वरी पृ. 716

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

बात यह है कि मुक्तों के लक्षणों के सम्बन्ध में विचार करते-करते ही व्यक्ति को मोक्ष की उपलब्धि सहज में हो जाती है। जैसे हमारी खोयी हुई वस्तु दीपक के प्रकाश में खोजने पर आसानी से प्राप्त हो जाती है अथवा दर्पण ज्यों-ज्यों साफ किया जाय, त्यों-त्यों उसमें हमारा रूप और भी अधिक स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है अथवा जल का मिलन होते ही जैसे लवण भी जल का ही रूप धारण कर लेता है अथवा प्रतिबिम्ब यदि पीछे मुड़कर फिर अपने बिम्ब को देखने के लिये आवे तो वह जैसे आप-से-आप बिम्ब ही हो जाता है, ठीक वैसे ही सन्तों की बातों का विचार करते-करते हमें अपना खोया हुआ आत्मस्वरूप फिर से मिल जाता है। इसीलिये सदा सन्तों की बातों का वर्णन और श्रवण करना चाहिये। जैसे चर्मचक्षुओ में विद्यमान दृष्टि चक्षुओं के चमड़े से नहीं बँधती, ठीक वैसे ही जो कर्म करने पर भी कर्म की समता तथा विषमता अथवा सुख-दुःख से बाँधा नहीं जाता और इस प्रकार जो बन्धन-मुक्त हो जाता है, अब मैं उसी के लक्षणों के बारे में बतलाता हूँ।[1]

Next.png

टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (377-402)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः