ज्ञानेश्वरी पृ. 715

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्षसंन्यास योग

जब तक मनुष्य को यह ज्ञान न हो जाय कि वास्तव में यह डोरी है तब तक यदि उसे उस डोरी में सर्पाभास होता रहे तथा उससे भय लगता रहे तो उसमें आश्चर्य की ही कौन-सी बात है? जब तक आँखों में पीलिया रोग रहेगा, तब तक चन्द्रमा पीत वर्ण का ही दृष्टिगत होगा। यदि मृगजल के धोखे में मृग आ जाय तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? इसी प्रकार जो व्यक्ति शास्त्रों और गुरु के नाम की हवा तक अपने अंग में नहीं लगने देता, जो एकमात्र मूर्खता के वशीभूत होकर अपना जीवन यापन करता है, वह अपनी आत्मा पर शरीररूपी जाल ठीक वैसे ही लादता है, जैसे गीदड़ मेघों की गति का आरोप चन्द्रमा पर करते हैं। फिर अपनी इसी समझ के कारण, हे किरीटी! वह कर्म की मजबूत गाँठ से इस देहरूपी कैदखाने में अच्छी तरह जकड़ कर बन्द हो जाता है।

देखों बेचारा तोता जिस समय नलिका-यन्त्र पर बैठता है, उस समय यद्यपि उसके पंजे मुक्त ही रहते हैं, पर फिर भी उसके मन में इस बात का दृढ़ विश्वास हो जाता है कि मैं इसी नलिका-यन्त्र के साथ बँध गया हूँ और यही कारण है कि वह नलिका-यन्त्र पर दृढ़तापूर्वक बैठा रहता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति अपने निर्मल आत्मस्वरूप पर प्रकृति (माया) से किये हुए कर्मों का आरोप करता है, वह असंख्य कोटि मापों से सदा कर्मों को मापता ही रह जाता है। बड़वानल तो रहता समुद्र में ही है, पर समुद्र का जल उसका स्पर्श नहीं करता। इसी प्रकार जो कर्मों से व्याप्त तो रहता है, पर फिर भी जिसके साथ कर्मों का सम्पर्क नहीं होता और इस प्रकार अलिप्तरूप से रहकर जो समस्त कर्म सम्पन्न करता है, उसे पहचानने के लक्षण अब मैं तुमको बतलाता हूँ, सुनो।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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