श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
हे सुविज्ञ! जो जीव अनादि काल से अविद्यारूपी नींद में पड़ा हुआ विश्वरूपी स्वप्नजाल में उलझा रहता है, वह तत्त्वमसि के महावाक्य का श्रवण करते ही और मस्तक पर गुरुकृपा का हाथ पड़ते ही तुरन्त विश्व के स्वप्नाभास समेत मायारूपी निद्रा का परित्याग कर सहसा अभेद भाव के आनन्द से जाग उठता है। जैसे चन्द्ररश्मियाँ निकलने पर मृगजल की स्पष्ट प्रतीत होने वाली तरंगें लुप्त हो जाती हैं अथवा जैसे बाल्यावस्था के निकल जाने पर मन में बैठे हुए हौवे का भय चला जाता है अथवा ईंधन जल जाने पर फिर किसी प्रकार ईंधन नहीं बन सकता अथवा निद्रा समाप्त हो जाने पर जैसे स्वप्न नेत्रों के समक्ष नहीं ठहरते, ठीक वैसे ही हे किरीटी! ऐसे जीव में अहंता-ममता कहीं लेशमात्र भी नहीं रह जाती। अँधेरे की तलाश करने के लिये सूर्य चाहे किसी सुरंग में ही क्यों न घुस जाय, पर फिर भी उसकी भेंट कभी अधंकार से नहीं हो सकती। ठीक इसी प्रकार जो जीव आत्मभाव से आवेष्टित हो जाता है, वह जिस दृश्य पदार्थ की ओर दृष्टिपात करता है वही पदार्थ स्वयं उस दृष्टिपात करने वाले का ही रूप धारण करने लगता है और इस प्रकार उसके साथ मिलकर एकाकार हो जाता है। आग जिस वस्तु में लगती है, वही वस्तु आग का रूप ग्रहण कर लेती है और फिर उन दोनों में दाह्य तथा दाहक का भाव स्वतः मिट जाता है। ठीक इसी प्रकार जिस समय कर्म का आकार आत्मा से भिन्न मान लिया जाता है और उस कर्म को आकर प्रदान करने के कर्तत्त्व का आत्मा पर होने वाला मित्था आरोप नहीं रह जाता, उस समय फिर जो कुछ अवशिष्ट रह जाता है, वही आत्म-स्थिति है। इस आत्म-स्थिति का स्वामित्व जिसे मिलता है, वह क्या कभी इस देह में बद्ध होकर रह सकता है? |
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