ज्ञानेश्वरी पृ. 69

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-2
सांख्य योग


तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वश: ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥68॥

इसलिये, हे धनंजय! यदि हमारी इन्द्रियाँ स्वतः हमारे अधीन हो जायँ तो इससे अधिक सार्थक बात और क्या हो सकती है। देखो, जैसे कछुआ अपनी ही इच्छानुसार अपने अवयवों को फैलाता है और अपनी इच्छानुसार ही अपने अवयवों को सिकोड़ भी लेता है, ठीक वैसे ही जिसकी इन्द्रियाँ उसके अधीन होती हैं और उसी के आज्ञानुसार ही सब काम करती हैं, उसी को स्थितप्रज्ञ जानना चाहिये। हे अर्जुन! अब मैं पूर्णता को प्राप्त मनुष्य का एक और गूढ़ लक्षण बतलाता हूँ। वह भी ध्यानपूर्वक सुनो।[1]


या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति सयंमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने: ॥69॥

जिस ब्रह्म-वस्तु के विषय में प्राणीमात्र बेखटक होकर मानो सोये हुए रहते हैं, उस ब्रह्म-वस्तु के विषय में जो अनवरत जागता रहता है और जिन विषयों के लिये समस्त प्राणीमात्र जाग्रत्‌ रहकर यत्नशील रहते हैं, उन विषयों की तरफ से जो अपनी आँखें पूरी तरह से मूँद लेता हैं, वही यथार्थात: समस्त उपाधियों से मुक्त रहता है। हे अर्जुन! वही वास्तव में स्थितप्रज्ञ होता है और वही पूर्णतया मुनीश्वर सिद्ध होता है।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (351-354)
  2. (355-356)

संबंधित लेख

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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