ज्ञानेश्वरी पृ. 68

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-2
सांख्य योग


नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयत: शान्तिरशान्तस्य कुत: सुखम् ॥66॥

स्थिर बुद्धि की यह शक्ति जिसके अन्तःकरण में नहीं होती, उसी पर सत्त्व, रज और तम-इन तीनों गुणों के सहयोग से विषयों का जाल फैलता है। हे पार्थ! ऐसे लोगों की बुद्धि कभी स्थिर नहीं रहती और न ही कभी उनके अन्तःकरण में स्थिर बुद्धि की परिकल्पना ही उदित होती है। हे अर्जुन! स्थिरता की परिकल्पना भी यदि मन में उदित न हो तो फिर भला शान्ति कैसे प्राप्त हो सकती है? जैसे पापी मनुष्य के पास मोक्ष कभी फटकता ही नहीं, वैसे ही जहाँ शान्ति का उद्गम नहीं होता, वहाँ सुख कभी भूलकर भी नहीं जाता।

हे अर्जुन! देखो, जब आग पर भूने हुए बीजों में से अंकुर निकल सकते हों तभी यह समझो कि अशान्त मनुष्य को भी सुख प्राप्त हो सकता है, शांति प्राप्त हो सकती है। तात्पर्य यह कि मन की अस्थिरता ही दुःखों का मूल कारण है। इसलिये इन्द्रियों को अपने अधीन रखना ही सबसे उत्तम है।[1]


इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥67॥

जो मनुष्य इन्द्रियों के कथनानुसार ही सारा-का-सारा काम सम्पन्न करता हो, वह यदि इस विषयरूपी समुद्र में तरता हुआ भी दृष्टिगोचर हो, तो भी सचमुच में कभी भी उसका तारण नहीं होता। जैसे नदी के तट पर पहुँची हुई नाव भी यदि तूफान में पड़ जाय तो पहले नदी के बीचोबीच में रहने की दशा में उस पर जो प्राण हर लेने वाला आया हुआ संकट टल गया था, वह संकट फिर से आ टपकता है; ठीक वैसे ही यदि स्वरूप स्थिति में पहुँचा हुआ व्यक्ति भी कुतूहल में इन्द्रियों का फिर से बहुत अधिक लाड़-प्यार करना शुरू कर दे तो जानना चाहिये कि अब भी वह सांसारिक दुःखों से घिरा हुआ ही है।[2]

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (342-347)
  2. (348-350)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः