श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-2
सांख्य योग
स्थिर बुद्धि की यह शक्ति जिसके अन्तःकरण में नहीं होती, उसी पर सत्त्व, रज और तम-इन तीनों गुणों के सहयोग से विषयों का जाल फैलता है। हे पार्थ! ऐसे लोगों की बुद्धि कभी स्थिर नहीं रहती और न ही कभी उनके अन्तःकरण में स्थिर बुद्धि की परिकल्पना ही उदित होती है। हे अर्जुन! स्थिरता की परिकल्पना भी यदि मन में उदित न हो तो फिर भला शान्ति कैसे प्राप्त हो सकती है? जैसे पापी मनुष्य के पास मोक्ष कभी फटकता ही नहीं, वैसे ही जहाँ शान्ति का उद्गम नहीं होता, वहाँ सुख कभी भूलकर भी नहीं जाता। हे अर्जुन! देखो, जब आग पर भूने हुए बीजों में से अंकुर निकल सकते हों तभी यह समझो कि अशान्त मनुष्य को भी सुख प्राप्त हो सकता है, शांति प्राप्त हो सकती है। तात्पर्य यह कि मन की अस्थिरता ही दुःखों का मूल कारण है। इसलिये इन्द्रियों को अपने अधीन रखना ही सबसे उत्तम है।[1]
जो मनुष्य इन्द्रियों के कथनानुसार ही सारा-का-सारा काम सम्पन्न करता हो, वह यदि इस विषयरूपी समुद्र में तरता हुआ भी दृष्टिगोचर हो, तो भी सचमुच में कभी भी उसका तारण नहीं होता। जैसे नदी के तट पर पहुँची हुई नाव भी यदि तूफान में पड़ जाय तो पहले नदी के बीचोबीच में रहने की दशा में उस पर जो प्राण हर लेने वाला आया हुआ संकट टल गया था, वह संकट फिर से आ टपकता है; ठीक वैसे ही यदि स्वरूप स्थिति में पहुँचा हुआ व्यक्ति भी कुतूहल में इन्द्रियों का फिर से बहुत अधिक लाड़-प्यार करना शुरू कर दे तो जानना चाहिये कि अब भी वह सांसारिक दुःखों से घिरा हुआ ही है।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |