ज्ञानेश्वरी पृ. 70

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-2
सांख्य योग


आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमाप: प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥70॥

हे पार्थ! ऐसे लोगों की पहचान करने का एक और लक्षण है। समुद्र की अक्षोभता (गम्भीरता) सदा अखण्डित ही रहती है। वर्षा काल में यद्यपि सारी नदियों का प्रवाह अपने तटों तक लबालब भरकर समुद्र में आ गिरता है, तो भी वह समुद्र लेशमात्र भी न बढ़ता है और न ही अपनी मर्यादा छोड़ता है अथवा जब ग्रीष्म काल में समस्त नदियाँ सूख जाती हैं, तब भी समुद्र में नाममात्र की भी कमी नहीं दीखती। इसी प्रकार यदि स्थितप्रज्ञ को सारी ऋद्धि और सिद्धियाँ मिल जायँ तो भी उसकी बुद्धि क्षुब्ध (विचलित) नहीं होती अथवा यदि उसे वे ऋद्धि-सिद्धियाँ न भी मिलें तो भी उसे अधीरता नहीं होती। कहो, क्या सूर्य के घर में कभी दीपक की बत्ती से भी प्रकाश होता है? और यदि दीपक न जलाया जाय तो क्या सूर्य को अँधेरे में ही रहना पड़ेगा?

इस प्रकार ऋद्धि और सिद्धि आयें अथवा चली जायँ, पर स्थितप्रज्ञ उनके आने-जाने का स्मरण तक नहीं करता। उसका अन्तःकरण सदा परम सुख में निमग्न रहता है। जो अपने घर की सुन्दरता के आगे इन्द्रभवन को भी तुच्छ समझता है, वह भला किसी भील की पत्तों से बनी हुई झोंपडी को देखकर कैसे भूल सकता है? जो इतना पुनीत हो कि अमृत में भी कोई कमी निकाल सकता हो, वह जिस प्रकार कांजी को (माड़) कभी स्वीकार नहीं करता, उसी प्रकार आत्मसुख का अनुभव करने वाला पुरुष सांसारिक सुखोपभोग का कोई मूल्य नहीं समझता। हे पार्थ! जहाँ स्वर्गसुख की तनिक भी परवाह न हो, वहाँ इन साधारण ऋद्धि-सिद्धियों को भला कौन पूछता है![1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (357-365)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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