ज्ञानेश्वरी पृ. 678

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग


यज्ञे तपसि दाने च स्थिति: सदिति चोच्यते ।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते ॥27॥

फिर चाहे वे याज्ञिक कर्म हों, चाहे दान हों और चाहे तप इत्यादि हों, वे चाहे पूर्ण किये जायँ अथवा चाहे अपूर्ण ही रह जायँ, पर जैसे पारस पत्थर की कसौटी पर घिसे जाने के कारण शुद्ध और खोटे स्वर्ण का भेद कभी नहीं रह सकता, वैसे ही सारे कर्म ब्रह्मार्पण होने पर ब्रह्मरूप ही हो जाते हैं। जैसे समुद्र में समा जाने पर नदियाँ पृथक्-पृथक नहीं की जा सकतीं, वैसे ही ब्रह्म को अर्पण किये हुए कर्मों में पूर्ण और अपूर्ण का कोई भेद रह ही नहीं जाता। इस प्रकार हे सुविज्ञ! मैंने तुम्हें ब्रह्म के नाम की सामर्थ्य बतला दी है और हे वीर शिरोमणि! इस नाम के एक-एक अक्षर का विनियोग भी मैंने तुम्हें सुन्दर भाषा में स्पष्ट रूप से बतला दिया है। इस प्रकार इस नाम का माहात्म्य बहुत अधिक है और इसीलिये यह ब्रह्म नाम है। अब तुम इसका रहस्य अच्छी तरह समझ गये न? अत: अब मेरी यही लालसा है कि आज से तुममें इस नाम की श्रद्धा निरन्तर बढ़ती रहे, कारण कि इस नाम का जिस समय उदय होता है, उस समय यह जन्म-बन्धन का कहीं नामोनिशान भी नहीं रहने देता। जिस कर्म में इस सत्-शब्द का विनियोग किया जायगा, वह कर्म मानो वेद के ही पूर्ण अनुष्ठान की ही भाँति हो जायगा।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (406-413)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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