श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग
पर यदि इस मार्ग का परित्याग करके श्रद्धा को त्यागकर दुराग्रहपूर्वक कोटि अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न किये जायँ, रत्नों से भरकर समग्र पृथ्वी दान कर दी जाय, मात्र एक अँगूठे पर खड़े रहकर हजारों वर्ष तप किये जायँ, इतने विशाल जलाशय के निर्माण कराये जायँ कि मानो दूसरे समुद्र ही हों, पर ये सारी-की-सारी बातें एकदम निष्फल होती हैं। जैसे पत्थर पर बरसा हुआ जल, भस्म में किया हुआ हवन, छाया के साथ किया हुआ प्रगाढ़ालिंगन अथवा आकाश को मारा हुआ थप्पड़ व्यर्थ साबित होता है, वैसे ही हे अर्जुन! ये सारे-के-सारे कर्म-समारम्भ भी एकदम व्यर्थ ही हो जाते हैं। अगर कोल्हू में पत्थर पेरे जायँ तो न उसमें से तेल ही हाथ लगता है और न खली ही। ठीक इसी प्रकार इस कर्म-समारम्भ से भी दरिद्रता के सिवा कुछ भी हाथ नहीं लगता। गाँठ में केवल खप्पर बाँधकर चाहे कोई अपने देश में घूमे और चाहे अन्य देश में चला जाय, पर उसका कहीं कुछ भी मूल्य नहीं मिलता तथा उसे ढोकर ले जाने वाले को केवल भूख की ही मार झेलनी पड़ती है। ठीक इसी प्रकार इस तरह के कर्माचरण से इस लोक के ही भोग प्राप्त नहीं हो सकते तो फिर परलोक के सुख उपभोग की प्राप्ति तो कोसों दूर है। आशय यह कि यदि ब्रह्म के नाम के प्रति श्रद्धा न हो तो जो काम किया जाता है, वह इहलोक में भी और परलोक में भी व्यर्थ ही सिद्ध होता है। पापरूपी गज का नाश करने वाले सिंह तथा त्रितापरूपी तिमिर को भगाने वाले सूर्य जो कमलापति वीर शिरोमणि नरोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण हैं, उन्होंने यही सारी बातें कही थीं। जैसे स्वयं चन्द्रमा भी चन्द्रिका में छिप जाता है, वैसे ही उस समय अर्जुन भी अपार आत्मानन्द में पूर्णरूप से डूब गया था। अहो, संग्राम भी एक प्रकार का व्यापार ही है, जिमसें बाणों की नोकों को मापने का साधन बनाकर उसके द्वारा मांस काट-काटकर जीवित मनुष्य ही मापे जाते हैं। ऐसे कठिन अवसर पर अर्जुन को स्वानन्दरूपी साम्राज्य का सुख भोगना भला कैसे शोभा देता था? |
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