श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग
फिर ओंकार तथा तत्कार के सहयोग के लिये यह सत्कार आ धमकता है और इससे उन हीन कर्मों की हीनता भी दूर हो जाती है अर्थात् वे कर्म भी ऊँचे होकर सर्वांगपूर्ण हो जाते हैं। यह सत् उन कर्मों का असत्पन मिटा करके और उन्हें ठीक तरह प्रचलित करके अपने सत्त्वबल से वैसे ही हीन कर्मों को सर्वांगपूर्ण कर देते हैं, जैसे कोई दिव्य औषधि व्याधि से पीड़ित व्यक्ति को व्याधि से मुक्त कर देती है अथवा पीड़ाग्रस्त व्यक्ति को पीड़ारहित कर देती है। कुछ कर्म कभी-कभी भूलवश विधि-नियमों का उल्लंघन करके निषिद्ध मार्ग में जाने लगते हैं, कारण कि चलने वाले ही मार्ग भूलते हैं तथा पारखी को ही भ्रम होता है। भला यह बात दावे के साथ कौन कह सकता है कि व्यवहार में क्या-क्या नहीं हो जाता? इसीलिये जब इस प्रकार अविचार के कारण कर्म की मर्यादा समाप्त हो जाती है और जब वे कर्म बुरे कर्म होने के मार्ग में लग जाते हैं, तब हे सुविज्ञ! यदि इस सत्-शब्द का प्रयोग ओंकार तथा तत्कार के प्रयोग से भी अत्यधिक सावधानीपूर्वक सम्पन्न किया जाय तो यह उस कर्म को उज्ज्वल कर देता है। जैसे लौहहेतु पारस पत्थर की रगड़ अथवा किसी नाले के लिये गंगा की भेंट अथवा मृत के लिये अमृत की वृष्टि होती है, ठीक वैसे ही हे वीर शिरोमणि! सदोष कर्महेतु सत्-शब्द का प्रयोग भी हितावह होता है। इस शब्द की ऐसी ही महिमा है। इस विवेचन का मर्म समझकर तुम जब इस नाम का विचार करोगे, तब यह बात तुम्हारे अनुभव में आ जायगी कि यह केवल परब्रह्म ही है। जिस स्थान से इस नाम-रूप वाले वस्तुमात्र की उत्पत्ति होती है, उसी स्थान पर जीव इस ‘ओम् तत्सत्’ का उच्चारण करने से पहुँच जाता है। वह स्थान केवल अपरिच्छिन्न शुद्ध परब्रह्म ही है और यह नाम उसमें विद्यमान रहने वाली सामर्थ्य का दर्शक है; पर आकाश के लिये जैसे स्वयं आकाश का ही आश्रय रहता है, ठीक वैसे ही इस नाम के लिये भी इस नाम का ही आश्रय है। आकाश में उदित होने वाला सूर्य जैसे स्वयं ही स्वयं को प्रकट करता है, वैसे ही यह नाम भी स्वयं ही अपने ब्रह्मस्वरूप को प्रकट करता है। अत: तुम यह न समझ लो कि यह नाम एकमात्र तीन अक्षरों का समूह ही है; अपितु इसे तुम साक्षात् ब्रह्म ही समझो। इसीलिये जो-जो कर्म सम्पन्न किये जायँ[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (380-405)
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