ज्ञानेश्वरी पृ. 664

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग


श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरै: ।
अफलाकाङ्‌क्षिभिर्युक्तै: सात्त्विकं परिचक्षते ॥17॥

हे ज्ञानवान् अर्जुन! ये जो त्रिविध तप के सम्बन्ध में तुम्हें बतलाये हैं, जब उनका आचरण फलाशा का परित्याग करके किया जाता है और जब ये शुद्ध सात्त्विक वृत्ति से तथा आस्तिक्य बुद्धि से किये जाते हैं, तब ज्ञानीजन उसे सात्त्विक तप कहते हैं।[1]


सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत् ।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम् ॥18॥

और नहीं तो तप के निमित्त से भेदभाव उत्पन्न करके गौरव के शिखर पर विराजमान होने के लिये यह सोचकर कि तीनों लोकों में मेरे अतिरिक्त अन्य किसी को सम्मान प्राप्त न हो, सभा तथा भोजन इत्यादि के अवसर पर स्वयं ही सर्वाधिक और सर्वप्रथम मान-सम्मान पाने के लिये, स्वयं ही समस्त विश्व की स्तुति का पात्र बनने के लिये और इस उद्देश्य से कि समस्त लोग दौड़-दौड़कर मेरे घर पधारा करें तथा लोगों से नाना प्रकार के जो सम्मान प्राप्त होते हैं; वे अन्य किसी को न मिले हों, गौरव की समस्त बातों का स्वयं ही अनुभव पाने के लिये जैसे कोई कुरूप व्यक्ति अपना महत्त्व बढ़ाने के लिये सुन्दर-से-सुन्दर वस्त्र धारण करता तथा सजता-सँवरता है, वैसे ही देह तथा वाणी पर तप का मुलम्मा चढ़ाने के लिये तथा इस प्रकार अपना महत्त्व प्रतिपादित करने के लिये, तात्पर्य यह कि ऐश्वर्य और मान की वासनाओं को पराकाष्ठापर्यन्त पहुँचाकर जिस तप का कष्ट किया जाता है, वही तप राजस कहलाता है। जिस गर्भिणी गौ के स्तन को पहुरनी नामक जन्तु चूस लेता है वह बच्चा पैदा होने पर भी दूध नहीं देती, उस गौ के सदृश अथवा उस खेत के सदृश जो तैयार तो हो जाता है, पर फिर भी जिसे पशु चर जाते हैं और फिर जिससे अनाज लेशमात्र भी प्राप्त नहीं होता, वह तप भी सिर्फ निष्फल होता तथा व्यर्थ जाता है, जो बहुत आडम्बरपूर्वक किया जाता है। इसके अलावा हे अर्जुन! इस प्रकार का तप करने वाले तपस्वी को जिस समय यह समझ में आता है कि मेरा तप निष्फल होता जा रहा है, उस समय वह उसे अधूरा ही छोड़ देता है और इसीलिये ऐसे तप में स्थिरता अथवा स्थायित्व भी नहीं हो सकता।

सामान्यतः जो मेघ असमय में ही आकाशमण्डल में छा जाता है और जोर-जोर से गरजकर समस्त ब्रह्माण्ड को गूँजा देता है, वह क्या कभी पलभर भी टिकता है? इसी प्रकार जो तप राजस कोटि का होता है, वह सिर्फ निष्फल होकर वन्ध्या की भाँति ही सिद्ध होता है तथा साथ ही आचरण में भी वह पूरा नहीं उतरता। अब वही तप तामसी रीति से किया जाय तो उससे स्वर्ग-लाभ और ऐहिक कीर्ति-इन दोनों की हानि होती है।[2]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (240-241)
  2. (242-253)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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