ज्ञानेश्वरी पृ. 665

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग


मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तप: ।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् ॥19॥

हे धनुर्धर! जिस तप से एकमात्र मूर्खता का सहारा लेकर अपने शरीर के साथ शत्रुवत् व्यहार किया जाता है, शरीर को पंचाग्नि का ताप पहुँचाया जाता है अथवा अन्दर से इस प्रकार की अग्नि जलायी जाती है जिसमें शरीर ईंधन की भाँति जले, जिसमें सिर पर गुग्गुल जलाते हैं, पीठ पर काँटे बाँधते हैं; चारों ओर जलने वाली अग्नि में शरीर अंगारों से जलाया जाता है अथवा श्वासोच्छ्वास बन्द करके व्यर्थ ही उपवास किया जाता है, तथा अपने पैर को ऊपर टाँगकर तथा मुँह को धूनी पर लटकाकर धुएँ का सेवन किया जाता है, हिम-शीतल जल में कण्ठपर्यन्त खड़े होकर अथवा किनारे के शिला पर बैठकर तपस्या की जाती है अथवा जीते-जी अपने शरीर के मांस के टुकड़े काटे जाते हैं और हे धनंजय! जब इस तरह अपने शरीर को नाना प्रकार की यन्त्रणाएँ दी जाती हैं, तब जो तप होता है और जिसका हेतु एकमात्र दूसरों का नाश करना होता है, उस तप का आचरण करके जो अपने शरीर को पीड़ित करता है, उसकी दशा उसी पत्थर की भाँति होती है, जो स्वयं अपने ही गुरुतर भार के कारण नीचे की ओर निरन्तर लुढ़कता जाता है और इस प्रकार स्वयं के साथ-साथ उसके मार्ग में पड़ने वाली समस्त चीजों को चूर-चूर कर डालता है। इस प्रकार का व्यक्ति सुखपूर्वक रहने वाले अपने जीव को पीड़ित कर विजयोपलब्धि की दुर्वासना से तप का आचरण करता है।

तात्पर्य यह कि इस प्रकार देह-सम्बन्धी यातना के भयंकर कृत्यों से जो तप निष्पन्न होता है, वही तामस तप कहलाता है। इस प्रकार सत्त्व इत्यादि गुणों के योग से जो त्रिविध तप होते हैं, वे मैंने तुम्हें साफ-साफ बतला दिये हैं। अब प्रसंगानुसार दान के भी त्रिविध लक्षण तुम्हें बतला देता हूँ। इस प्रकरण में त्रिगुणों के योग से दान के भी तीन प्रकार होते हैं। उनमें से प्रथम सात्त्विक दान के लक्षण ध्यानपूर्वक सुनो।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (254-265)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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