श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-2
सांख्य योग
यदि मन में विषयों की लेशमात्र भी स्मृति शेष रह जाय, तो वह असंग होने पर भी विषयों की संगति करा ही देती है। इसी संगति से वासना प्रकट होती है। जहाँ अन्तःकरण में विषयों के सम्बन्ध में कामवासना उत्पन्न हुई, वहाँ क्रोध पहले ही आ जाता है और जहाँ क्रोध आया, वहाँ उसके साथ अविचार रखा ही हुआ है। जब अविचार प्रकट हुआ, तब स्मृति ठीक वैसे ही विनष्ट हो जाती है, जैसे प्रचण्ड वायु के वेग से दीपक की लौ बुझ जाती है अथवा सूर्यास्त होने पर रात्रि जैसे सूर्य के तेज को ग्रस लेती है; वैसी ही दशा प्राणियों की स्मृति का नाश हो जाने पर होती है। फिर जब अज्ञानान्धकार के द्वारा सब कुछ घिर जाता है, तब बुद्धि भीतर-ही-भीतर व्याकुल हो जाती है। फिर हे धनुर्धर! जिस प्रकार जन्मान्ध को कभी दौड़कर भागना पड़े तो वह दीन-हीन होकर इधर-उधर भटकता-फिरता है। उसी प्रकार बुद्धि भी भ्रम में पड़कर इधर-उधर भटकने लगती है। जब इस प्रकार स्मृति नष्ट होने पर बुद्धि की दशा एकदम विकट हो जाती है, तब विवेक-शक्ति का भी बिल्कुल सफाया हो जाता है। चैतन्य के विनाश से जो दशा शरीर की होती है, वैसी ही दशा बुद्धि के नाश से मनुष्य की हो जाती है। इसलिये हे अर्जुन! बस थोड़े में इतना ही जान लो कि जैसे एक छोटी-सी चिंगारी ईंधन (लकड़ी) में लग जाय तो उसकी आग फैलकर सारे त्रिलोकी को भस्म करने के लिये पर्याप्त होती है, ठीक वैसे ही यदि कभी मन में विषयों का ध्यान आ भी जाय तो उससे मनुष्य का पतन अवश्यम्भावी है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (321-330)
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