श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-2
सांख्य योग
इसीलिये इस समस्त विषयों को मन से त्याग देना चाहिये। इससे राग और द्वेष स्वतः समाप्त हो जाते हैं। इसके अलावा, हे पार्थ! एक बात और सुनो। राग-द्वेष नष्ट हो जाने के बाद यदि इन्द्रियाँ विषय-रस का सेवन करें तो भी कोई बाधा नहीं हो सकती। जैसे आकाश में रहने वाला सूर्य अपने किरणरूपी हाथों से जगत् का स्पर्श करता है, पर फिर भी उसके साथ जगत् के संसर्ग-दोष का सम्पर्क नहीं होता, वैसे ही जो पुरुष इन्द्रियों के विषयों के लोभ के फेर में नहीं पड़ता और काम-क्रोधादि का परित्याग कर नित्य आत्मानन्द से भरा-पूरा रहता है, उसे उपभोग के विषयों में भी आत्मता के सिवा और कुछ भी नहीं सूझता। फिर तुम्हीं बतलाओ कि ऐसी दशा में किसके लिये कौन-से विषय बाधक हों? भइया अर्जुन! यदि जल से जल को डुबाया जा सकता हो अथवा आग से आग को जलाया जा सकता हो, तभी ऐसे परिपूर्ण मनुष्य को विषय भी अपने पाश में आबद्ध करके व्याकुल कर सकते हैं। इस प्रकार जो मनुष्य भेदरहित होकर केवल आत्मस्वरूप में ही स्थित रहता है, निःसन्देह उसे स्थितप्रज्ञ जानना चाहिये।[1]
जिस चित्त में आनन्द निरन्तर डेरा डाले रहता है, उसमें संसार-सम्बन्धी दुःखों की घुसपैठ हो ही नहीं सकती। जैसे किसी व्यक्ति के जठर में अमृत का स्त्रोत (झरना) होने से उसे भूख-प्यास नहीं सताती, ठीक उसी प्रकार जिसका अन्तःकरण आनन्द से ओत-प्रोत रहता है, फिर उसे भला दुःख कहाँ? उसकी बुद्धि तो स्वतः परमात्मा में ही लगी रहती है। जैसे वायुरहित जगह पर रखा हुआ दीपक कभी हिलता-डुलता नहीं तथा निरन्तर जलता रहता है, वैसे ही योग से युक्त व्यक्ति की बुद्धि भी स्वस्वरूप में स्थिर रहती है।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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