ज्ञानेश्वरी पृ. 67

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-2
सांख्य योग


रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥64॥

इसीलिये इस समस्त विषयों को मन से त्याग देना चाहिये। इससे राग और द्वेष स्वतः समाप्त हो जाते हैं। इसके अलावा, हे पार्थ! एक बात और सुनो। राग-द्वेष नष्ट हो जाने के बाद यदि इन्द्रियाँ विषय-रस का सेवन करें तो भी कोई बाधा नहीं हो सकती। जैसे आकाश में रहने वाला सूर्य अपने किरणरूपी हाथों से जगत् का स्पर्श करता है, पर फिर भी उसके साथ जगत् के संसर्ग-दोष का सम्पर्क नहीं होता, वैसे ही जो पुरुष इन्द्रियों के विषयों के लोभ के फेर में नहीं पड़ता और काम-क्रोधादि का परित्याग कर नित्य आत्मानन्द से भरा-पूरा रहता है, उसे उपभोग के विषयों में भी आत्मता के सिवा और कुछ भी नहीं सूझता। फिर तुम्हीं बतलाओ कि ऐसी दशा में किसके लिये कौन-से विषय बाधक हों? भइया अर्जुन! यदि जल से जल को डुबाया जा सकता हो अथवा आग से आग को जलाया जा सकता हो, तभी ऐसे परिपूर्ण मनुष्य को विषय भी अपने पाश में आबद्ध करके व्याकुल कर सकते हैं। इस प्रकार जो मनुष्य भेदरहित होकर केवल आत्मस्वरूप में ही स्थित रहता है, निःसन्देह उसे स्थितप्रज्ञ जानना चाहिये।[1]


प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धि: पर्यवतिष्ठते ॥65॥

जिस चित्त में आनन्द निरन्तर डेरा डाले रहता है, उसमें संसार-सम्बन्धी दुःखों की घुसपैठ हो ही नहीं सकती। जैसे किसी व्यक्ति के जठर में अमृत का स्त्रोत (झरना) होने से उसे भूख-प्यास नहीं सताती, ठीक उसी प्रकार जिसका अन्तःकरण आनन्द से ओत-प्रोत रहता है, फिर उसे भला दुःख कहाँ? उसकी बुद्धि तो स्वतः परमात्मा में ही लगी रहती है। जैसे वायुरहित जगह पर रखा हुआ दीपक कभी हिलता-डुलता नहीं तथा निरन्तर जलता रहता है, वैसे ही योग से युक्त व्यक्ति की बुद्धि भी स्वस्वरूप में स्थिर रहती है।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (331-337)
  2. (338-341)

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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